रोटर सिंड्रोम - Rotor syndrome in Hindi

Dr. Rajalakshmi VK (AIIMS)MBBS

December 28, 2020

December 28, 2020

रोटर सिंड्रोम
रोटर सिंड्रोम

रोटर सिंड्रोम क्या है?
रोटर सिंड्रोम एक वंशानुगत बीमारी है जिसमें खून में बिलीरुबिन (एक प्रकार का प्रोटीन) का लेवल बहुत बढ़ जाता है और इसे हाइपरबिलीरुबिनेमिया कहते हैं। बिलीरुबिन का उत्पादन तब होता है जब लाल रक्त कोशिकाएं टूटती हैं और इसका रंग नारंगी-पीले जैसा होता है। शरीर में बिलीरुबिन के अधिक उत्पादन से त्वचा और आंखों के सफेद हिस्से का रंग पीला हो जाता है (पीलिया) और यह इस डिसऑर्डर का एकमात्र लक्षण है।

आमतौर पर नवजात शिशु में या बचपन के शुरूआती दिनों में ही पीलिया की पहचान हो जाती है और यह स्थिति आती-जाती रहती है। रोटर सिंड्रोम एसएलसीओ1बी1 और एसएलसीओ1 बी3 दोनों जीनों में उत्परिवर्तन होने के कारण होता है और यह ऑटोसोमल रिसेसिव तरीके से माता-पिता से बच्चे को प्राप्त होता है। आमतौर पर इस डिसऑर्डर को गंभीर नहीं माना जाता है यही वजह है कि इस स्थिति में किसी प्रकार के इलाज की आवश्यकता नहीं होती।

(और पढ़ें- पीलिया होने पर क्या करना चाहिए)

रोटर सिंड्रोम के लक्षण या संकेत - Rotor syndrome Symptoms in Hindi

नैशनल सेंटर फॉर एडवांसिग ट्रांसलेशनल साइंसेज की एक रिपोर्ट के मुताबिक रोटर सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति में कुछ खास लक्षण देखने को नहीं मिलते हैं लेकिन मरीज में पीलिया से संबंधित लक्षण देखे जा सकते हैं जो आते जाते रहते हैं। जैसा की पहले ही बताया गया है कि इस बीमारी के लक्षण जन्म के तुरंत बाद या बचपन में ही दिखायी देने लगते हैं। रोटर सिंड्रोम के लक्षण इस प्रकार हैं-

  • त्वचा का पीला होना 
  • आंखों के सफेद हिस्से (कंजंक्टिवल इक्टेरस) का पीला होना

(और पढ़ें- नवजात में पीलिया के लक्षण)

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रोटर सिंड्रोम का कारण क्या है? - Rotor syndrome Causes in Hindi

जैसे कि पहले ही बताया गया है कि रोटर सिंड्रोम दो प्रकार के जीन परिवर्तन के कारण होता है जिसमें एसएलसीओ 1 बी 1 और एसएलसीओ 1 बी 3 जीन शामिल है। इस समस्या में इन दोनों जीन में उत्परिवर्तन यानी म्यूटेशन होता है। दरअसल ये दोनों ही जीन (एसएलसीओ 1 बी 1 और एसएलसीओ 1 बी 3) एक समान प्रोटीन बनाने का निर्देश देते हैं जिसे क्रमशः ऑर्गैनिक एनियन ट्रांसपोर्टिंग पॉलीपेप्टाइड1बी1 (ओएटीपी1बी1) और ऑर्गैनिक एनियन ट्रांसपोर्टिंग पॉलीपेप्टाइड1बी3 (ओएटीपी1बी3) कहा जाता है।

'मेडलाइन प्लस' के मुताबिक ये दोनों प्रकार के प्रोटीन लिवर कोशिकाओं में पाए जाते हैं जो बिलीरुबिन और अन्य यौगिकों को खून से लिवर में ले जाते हैं ताकि उन्हें शरीर से बाहर निकाला जा सके। लिवर में, बिलीरुबिन को पित्त नामक एक पाचन संबंधी तरल पदार्थ में खत्म या विघटित कर दिया जाता है और फिर शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है। लेकिन ट्रांसपोर्ट प्रोटीन ओएटीपी1बी1 और ओएटीपी1बी3 का फंक्शन न होने पर बिलीरूबिन शरीर से बाहर नहीं निकल पाता और इसके शरीर में जमा होने पर रोटर सिंड्रोम से पीड़ित व्यक्ति में पीलिया हो जाता है। 

(और पढ़ें- लिवर को साफ रखने के लिए क्या खाएं)

रोटर सिंड्रोम का निदान - Diagnosis of Rotor syndrome in Hindi

रोटर सिंड्रोम का निदान बीमारी के लक्षणों और अलग-अलग लैब टेस्ट के नतीजों के आधार पर किया जाता है। इस दौरान पीलिया के हल्के लक्षणों को छोड़कर पीड़ित व्यक्ति के शारीरिक रूप से जो भी टेस्ट होते हैं वो सभी सामान्य ही होते हैं।

दरअसल शरीर में बिलीरुबिन के दो रूप होते हैं। पहला जो कि जहरीला या विषाक्त होता है जिसे अनकंजुगेटेड यानी गैर संयुग्मित बिलीरुबिन कहा जाता है। दूसरा जहरीला नहीं होता जिसे कंजुगेटेड बिलीरुबिन कहा जाता है। रोटर सिंड्रोम से पीड़ित लोगों के खून में (हाइपरबिलिरुबिनमिया) बिलीरुबिन के दोनों प्रकार जमा होने लगते हैं लेकिन कंजुगेटेड बिलीरुबिन का ऊंचा स्तर, इस डिसऑर्डर की विशिष्टता है। पीड़ित लोगों में कंजुगेटेड बिलीरुबिन आमतौर पर कुल बिलीरुबिन का 50 फीसदी से अधिक होता है। 

वहीं, रोटर सिंड्रोम के निदान की पुष्टि के लिए पीड़ित को कुछ प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है-

  • सीरम बिलीरुबिन सघनता की जांच
  • यूरिन में बिलीरुबिन की जांच
  • हेमोलिसिस और लिवर एंजाइम एक्टिविटी की जांच (अन्य स्थितियों का पता लगाने के लिए)
  • कोलेसिंटिग्राफी (जिसे एचआईडीए स्कैन भी कहा जाता है)
  • टोटल यूरिन पोर्फिरिन टेस्ट

रोटर सिंड्रोम का इलाज - Rotor syndrome Treatment in Hindi

रोटर सिंड्रोम को कोई गंभीर स्थिति नहीं है और इसके उपचार की आवश्यकता नहीं होती। वैसे तो रोटर सिंड्रोम के रोगियों में दवा से किसी तरह का रिएक्शन नहीं होता लेकिन आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली ऐसी कई दवाइयां या उनके मेटाबोलाइट्स हैं जिनका प्रभावित व्यक्ति में गंभीर परिणाम देखने को मिल सकता है। इसका कारण यह है कि कुछ दवाएं दो ट्रांसपोर्टर प्रोटीनों में से एक के माध्यम से लिवर में जाती हैं जो रोगियों में नहीं होते हैं। इसलिए रोटर सिंड्रोम से पीड़ित लोगों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके डॉक्टर उनकी बीमारी के निदान के बारे में जानते हों।

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