जीन एडिटिंग से जुड़ी चर्चित तकनीक क्रिस्पर भ्रूण के लिए खतरा बन सकती है। कोलंबिया यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने विस्तृत लैब टेस्ट के आधार पर कहा है कि इस तरह की जीन एडिटिंग मानव भ्रूण के साथ बड़ी गड़बड़ी कर सकती है। इन वैज्ञानिकों ने भ्रूण से जुड़ी डीएनए खामियों को ठीक करने के लिए क्रिस्पर-कैस9 तकनीक का इस्तेमाल करने के बाद यह लैब टेस्ट किया था। लेकिन ऐसा करते हुए उन्हें पता चला है कि यह तकनीक भ्रूण के लिए काफी ज्यादा खतरनाक हो सकती है। लैब टेस्ट के परिणामों के आधार पर उन्होंने कहा है कि जीन एडिटिंग से भ्रूण में इस तरह के बदलाव (जैसे क्रोमोसोम का पूरी तरह खत्म होना) देखने को मिले, जिनकी अपेक्षा नहीं की गई थी।

इस जानकारी को इसके अध्ययन समेत मेडिकल पत्रिका सेल में प्रकाशित किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, कोलंबिया यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने क्रिस्पर-कैस9 तकनीक के तहत उसी केमिकल टूल का इस्तेमाल किया, जिसकी मदद से 2018 में एक चीनी वैज्ञानिक ने दुनिया के सबसे पहले जीन-एडिटेड बच्चों का सफलतापूर्वक जन्म करवाया था। हालांकि इस तकनीक के इस्तेमाल को लेकर उसे जेल जाना पड़ा था। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि क्रिस्पर-कैस9 तकनीक के इस तरह इस्तेमाल की इजाजत अंतरराष्ट्रीय नियमों के तहत नहीं दी गई है।

जानकार बताते हैं कि भविष्य के लिहाज से क्रिस्पर तकनीक भरोसेमंद है, लेकिन फिलहाल इसके साइड इफेक्ट के बारे में और जानना जरूरी है। जन्म से पहले ही भ्रूण, स्पर्म या अंडे पर इस तकनीक का इस्तेमाल करने से इसके प्रभाव भावी पीढ़ियों तक ट्रांसफर हो सकते हैं। ये प्रभाव नकारात्मक भी हो सकते हैं। ऐसे में एक पीढ़ी से कई पीढ़ियां शारीरिक खामियों से ग्रस्त हो सकती हैं। यही कारण है कि वैज्ञानिकों के अंतरराष्ट्रीय पैनल और नीतिशास्त्रियों का मत है कि अभी यह दावा करना जल्दबाजी होगी कि इस तरह की जीन थेरेपी सुरक्षित ढंग से की जा सकती है या नहीं। कोलंबिया यूनिवर्सिटी में हुआ अध्ययन इस आशंका को और बल देता है। अध्ययन में शामिल प्रमुख शोधकर्ता और बायोलॉजिस्ट डाइटर एगली ने कहा है, 'अगर हमारी स्टडी के परिणाम दो साल पहले आए होते तो मुझे संदेह कि कोई इस पर आगे काम करता और प्रेग्नेंसी में इसे भ्रूण पर आजमाने की कोशिश करता।'

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कैसे किया अध्ययन?
इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं को भ्रूण निर्माण के लिए एग्स की जरूरत थी। इसके लिए उन्होंने 40 स्वस्थ डोनर्स की मदद ली। इन महिलाओं से एग लेने के बाद उन्हें एक पुरुष के स्पर्म और एक जीन म्यूटेशन के साथ मिलाया गया। इस जीन म्यूटेशन में शोधकर्ताओं ने डीएनए अल्फाबेट से एक लेटर गायब कर दिया था। साधारण भाषा में कहें तो डीएनए में ऐसी खामी पैदा की गई, जिससे अंधापन हो सकता है। ऐसा करने का मकसद यह था कि जीन एडिटिंग की मदद से गायब लेटर को डीएनए में डाल दिया जाए ताकि वंशाणु ठीक से काम करे।

वैज्ञानिकों ने कुछ भ्रूणों की जीन एडिटिंग फर्टिलाइजेशन के दौरान की, जो इस तरह के प्रयास के लिए सबसे उपयुक्त समय माना जाता है। बाकी भ्रूणों की एडिटिंग तब की गई, जब उनमें दो कोशिकाएं बन गई थीं और उनकी उम्र लगभग दो दिन हो गई थी। एडिटिंग के बाद भ्रूण के विकास के दौरान कोशिकाओं का अलग-अलग चरण में विश्लेषण किया गया, यह देखने के लिए म्यूटेशन कितना रिपेयर हो गया था। जांच के दौरान पता चला कि फर्टिलाइजेशन के दौरान हुए एडिटिंग से भ्रूण कोशिकाओं में किसी तरह का सुधार नहीं हुआ था। भ्रूणों में बनी 45 कोशिकाओं में से केवल तीन में एडिटिंग ने अपेक्षित परिणाम दिया।

बाकी भ्रूणों पर क्या प्रभाव पड़ा, इसकी जानकारी देते हुए डॉ. एग्ली ने कहा, 'हमने पाया कि म्यूटेशन को ठीक करने के बजाय उसमें मौजूद क्रोमोसोम ही गायब हो गए।' अध्ययन की प्रमुख शोधकर्ता ने बताया कि यह एक गंभीर बदलाव था, जिससे भ्रूण बर्बाद हो सकता है। उन्होंने कहा कि बाकी कोशिकाओं के क्रोमोसोम में भी बदलाव दिखाई दिए, जो नुकसानदेह हो सकते हैं। एग्ली ने कहा कि पिछले अध्ययनों में शोधकर्ताओं ने कहा है कि क्रिस्पर-कैस9 से भ्रूणों की रिपेयरिंग हुई है, लेकिन असल में यह दावा 'गलत' हो सकता है। एग्ली के मुताबिक, सामान्य लैब टेस्ट में किसी दीर्घकालिक म्यूटेशन का पता नहीं चलता है। लेकिन जिस प्रकार की अतिरिक्त विस्तृत टेस्टिंग इस अध्ययन में की गई है, उससे मालूम चला है कि इस तकनीक से भ्रूण में दूसरी तरह के (नकारात्मक) परिवर्तन हो सकते हैं, जैसे कि क्रोमोसोम का पूरी तरह गायब हो जाना।

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क्या है जीन एडिटिंग और क्रिस्पर-कैस9?
जीनोम एडिटिंग या जीन एडिटिंग अलग-अलग तकनीकों का ऐसा समूह है, जिसके जरिये वैज्ञानिक किसी जीव के डीएनए में बदलाव कर सकते हैं। इस तकनीक की मदद से डीएनए में शामिल जेनेटिक मटीरियल को जरूरत के हिसाब से बढ़ाया या कम किया जा सकता है। साथ ही, किसी विशेष वंशाणु समूह (जीनोम) की कोई खास लोकेशन को ऑल्टर करने में भी जीन एडिटिंग तकनीक काफी मददगार बताई जाती है। इस टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल और इसे और बेहतर करने के लिए कई नई अप्रोच या तकनीक या टूल्स विकसित किए गए हैं। इस सिलसिले में सबसे नया नाम क्रिस्पर-कैस9 तकनीक का लिया जाता है, जिसने मेडिकल साइंस के जानकार जीव विज्ञान के लिए 'नई क्रांति' बताते हैं।

क्रिस्पर-कैस9 में क्रिस्पर 'क्लस्टर्ड रेग्युलर्ली इंटरस्पेस्ड शॉर्ट पैलिनड्रॉमिक रिपीट्स' का संक्षित नाम है। वहीं, कैस9 एक प्रोटीन का नाम है, जो डीएनए वायरसों और प्लासमिड के खिलाफ कुछ विशेष बैक्टीरिया को सुरक्षा प्रदान करने का काम करता है। जीन एडिटिंग के क्षेत्र में क्रिस्पर-कैस9 तकनीक ने इसलिए वैज्ञानिकों में उत्सुकता जगाई है, क्योंकि अन्य तकनीकों की अपेक्षा ज्यादा सटीक होने के साथ यह अधिक तेज और सस्ती है। साथ ही, इसकी कार्यक्षमता अन्य मौजूदा जीन एडिटिंग मेथडों से ज्यादा बताई जाती है।

क्रिस्पर-कैस9 को बैक्टीरिया में प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले जीनोम एडिटिंग सिस्टम की मदद से रूपांतरित किया गया है। शरीर में घुसपैठ करने वाले वायरसों के डीएनए पार्टिकल्स को बैक्टीरिया कैप्चर कर लेता है। इन्हीं टुकड़ों का इस्तेमाल करते हुए निर्माता वैज्ञानिकों ने डीएनए सेग्मेंट की श्रृंखला तैयारी की, जिसे क्रिस्पर नाम दिया गया। यह श्रृंखला बैक्टीरिया को वायरसों (और उनसे मिलते-जुलते रोगाणुओं) के बारे में याद रखने में मदद करती है। इसके परिणामस्वरूप, वायरस जब फिर से अटैक करते हैं तो बैक्टीरिया क्रिस्पर श्रृंखला की मदद से उनके खिलाफ आरएनए (डीएनए की तरह एक जेनेटिक मटीरियल) सेग्मेंट पैदा करता है, जो विषाणुओं के डीएनए को टार्गेट करते हैं। इसके बाद बैक्टीरिया कैस9 प्रोटीन या उसी से मिलते अन्य एंजाइम का इस्तेमाल करते हुए डीएनए को अलग कर देता है। इससे वायरस अक्षम हो जाता है।

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जानकार बताते हैं कि क्रिस्पर की क्षमता पता करने के लिए वैज्ञानिकों द्वारा लैब में किए गए परीक्षणों में ऐसे ही वांछित परिणाम मिले हैं। जिसके बाद क्रिस्पर-कैस9 से कई प्रकार की बीमारियों के इलाज की उम्मीद लगाई जा रही है। इनमें सिस्टिक फाइब्रोसिस, हीमोफीलिया और सिकल सेल जैसी समस्याओं के अलावा, हृदय रोग, मानसिक बीमारी और कैंसर तथा एचआईवी जैसी गंभीर और जटिल मेडिकल कंडीशन शामिल हैं। इन तमाम पहलुओं पर गौर करने के बाद क्रिस्पर-कैस9 तकनीक के महत्व को स्वीकार करते हुए हाल ही में नोबेल समिति ने इस तकनीक को बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली दो वैज्ञानिकों इमैनुअल चापोन्शे और जेनिफर डाउडना को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया था।

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