कोविड-19 महामारी ने कैंसर के मरीजों के इलाज और इस बीमारी को लेकर होने वाले रिसर्च में हुई प्रगति को कम के कम डेढ़ साल पीछे धकेल दिया है। एक अंतरराष्ट्रीय सर्वे में पता चला है कि दुनियाभर में कैंसरग्रस्त लोगों के ट्रीटमेंट में हुई प्रगति और इस विषय पर किए शोधकार्य में देरी का नुकसान झेलना पड़ सकता है। इस सर्वे को अंजाम देने वाले लंदन स्थित दि इंस्टीट्यूट ऑफ कैंसर रिसर्च (आईसीआर) के शोधकर्ताओं ने कहा है कि कोरोना वायरस संकट के चलते लगाए गए शुरुआती लॉकडाउन, प्रयोगशालाओं की वास्तविक क्षमता पर लगी पाबंदियों और राष्ट्रीय वैज्ञानिक सुविधाओं के बंद होने की वजह से खुद उनके संस्थान का कैंसर रिसर्च कम से कम छह महीने पिछड़ सकता है। ऐसे अन्य कारणों की वजह से कैंसर के क्षेत्र में हुआ रिसर्च औसतन 17 महीने या लगभग डेढ़ साल पीछे जा सकता है।

हालांकि शोधकर्ताओं ने यह भी कहा है कि विज्ञान ने कोविड-19 महामारी पर कई प्रकार की बढ़त हासिल कर ली है, लिहाजा चैरिटेबल डोनेशन या सरकारी मदद के जरिये अतिरिक्त फंडिंग करके कैंसर को लेकर हुए रिसर्च को दीर्घकालिक नुकसान से बचाया जा सकता है। सर्वे की मानें तो स्टाफिंग के लिए निवेश कर और नई तकनीक (जैसे रोबोटिक्स और कंप्यूटिंग पावर) लाकर इस गैप को भरा जा सकता है।

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कोविड-19 महामारी के चलते हर प्रकार का क्षेत्र किसी न किसी तरह प्रभावित हुआ है। वैज्ञानिक अध्ययन और शोधकार्य भी इनमें शामिल हैं। ब्रिटेन स्थित आईसीआर ने दुनिया के किसी भी दूसरे अकादमिक केंद्र की अपेक्षा ज्यादा कैंसर ड्रग्स की खोज की है। लेकिन कोरोना वायरस संकट के कारण आईसीआर और ऐसी कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक संस्थाओं को नुकसान हुआ है। उनकी अपनी आय प्रभावित तो हुई ही है, साथ ही संस्थाओं से होने वाली आर्थिक मदद भी कम हुई है या बंद ही हो गई है। ऐसे में आईसीआर ने अपने यहां के 239 वैज्ञानिकों का सर्वे किया है, यह जानने के लिए कि कैसे कोविड-19 महामारी की वजह से संस्थान का और उनका अपना शोधकार्य प्रभावित हुआ है और कैसे इसे वापस जल्दी से जल्दी ट्रैक पर लाया जा सकता है।

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सर्वेक्षण में किए गए सवालों पर शोधकर्ताओं ने बताया है कि पहले लॉकडाउन में ही उनके शोधकार्य का औसतन दस हफ्ते का समय व्यर्थ चला गया था। उन्होंने कहा कि कैंसर को लेकर उनका अपना शोधकार्य औसत रूप से छह महीने पिछड़ सकता है। 91 प्रतिशत शोधकर्ताओं की सबसे बड़ी समस्या यह रही कि लॉकडाउन के दौरान लैबोरेटरी बंद कर दी गईं और शोधकार्य से जुड़ी सुविधाओं और इक्वपमेंट के इस्तेमाल पर पाबंदियां लगा दी गईं। एक दूसरी बड़ी समस्या यह सामने आई कि शोधकार्य के लिए जरूरी क्लिनिकल ट्रायलों के लिए मरीजों को नामांकित नहीं किया जा सका। करीब 60 प्रतिशत ट्रायल कोरोना लॉकडाउन के कारण इस प्रकार प्रभावित हुए हैं। वहीं, 46 प्रतिशत शोधकार्यों में मरीजों के क्लिनिकल सैंपल नहीं लिए जा सके या उनसे बातचीत नहीं हो पाई।

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सर्वे में यह भी सामने आया है कि कोरोना संकट के कारण लगे लॉकडाउन का असर वैज्ञानिकों के काम पर ही नहीं, बल्कि उनकी भावनाओं पर भी पड़ा है। शोधकार्य जारी रख पाने के कारण उनमें निराशा फैली है। सर्वे में कम से कम 69 प्रतिशत वैज्ञानिकों ने यह बात मानी है। वहीं, 39 प्रतिशत ने कहा है कि वे इसके चलते उदास महसूस करते हैं, जबकि 25 प्रतिशत ने यहां तक कहा कि शोध नहीं कर पाने के चलते वे डिप्रेस फील करते हैं। सर्वे में इन मेडिकल विशेषज्ञों ने प्रयोगशालाओं को खोले रखने की खुलकर वकालत की है। उन्होंने कहा है कि इन लैबों को बंद करने से कैंसर मरीजों के इलाज में हुई प्रगति में बाधा उत्पन्न होती है, लिहाजा लैबों को खोला रखा जाना चाहिए।

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