जिन बच्चों को नवजात रहते हुए ही मोतियाबिंद की सर्जरी से गुजरना पड़ता है, उन बच्चों में 10 साल बाद ग्लूकोमा होने का जोखिम 22 प्रतिशत तक बढ़ जाता है। यहां पर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इंट्राऑक्यूलर लेंस बच्चे की आंखों में इम्प्लांट किया गया है या नहीं। इन्फैंट अफैकिया ट्रीटमेंट स्टडी (IATS) में ये नतीजे सामने आए जिसे अमेरिका के नैशनल आई इंस्टीट्यूट (NEI) ने फंड किया था। इस स्टडी के नतीजों को जामा ऑप्थैलमोलॉजी नाम के जर्नल में प्रकाशित किया गया जिसमें 10 साल तक बच्चों को फॉलोअप किया गया था। नैशनल आई इंस्टीट्यूट, अमेरिका के नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (NIH) का एक पार्ट है।

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इंट्राऑक्यूलर लेंस लगवाना जरूरी नहीं
NEI के डायरेक्टर माइकल एफ चियांग कहते हैं, स्टडी के ये नतीजे उस जरूरत को रेखांकित करते हैं कि जिन नवजात शिशुओं की मोतियाबिंद सर्जरी हो रही है उनमें लंबे समय तक इस बात की निगरानी की जाए कि उनमें ग्लूकोमा यानी काला मोतियाबिंद विकसित हो रहा है या नहीं। साथ ही ये नतीजे कुछ हद तक इस बात का आश्वासन भी देते हैं कि मोतियाबिंद की सर्जरी करवाते वक्त इंट्राऑक्यूलर लेंस लगवाना जरूरी नहीं है। 

कैलिफोर्निया स्थित स्टैन्फोर्ड यूनिवर्सिटी में ऑप्थैलमोलॉजी के प्रोफेसर और इस ट्रायल के मुख्य जांचकर्ता स्कॉट आर लैम्बर्ट कहते हैं, "ज्यादातर पीडियाट्रिक ऑप्थैलमोलॉजी सर्जन ये मानते हैं कि बच्चे की आंखों में मौजूद लेंस को अगर इम्प्लांटेड लेंस से बदल दिया जाए तो यह बच्चे में ग्लूकोमा विकसित होने से बचाता है लेकिन इस स्टडी के नतीजे इस विचार को चैलेंज करते हैं।" 

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एक आंख में मोतियाबिंद के साथ पैदा हुए थे स्टडी में शामिल बच्चे
स्टडी में शामिल 114 प्रतिभागी (जिनकी उम्र 1 से 6 महीने के बीच थी) एक आंख में मोतियाबिंद की समस्या के साथ ही पैदा हुए थे। मोतियाबिंद हटाने की सर्जरी के दौरान, ऑपरेटिंग रूम में नवजात शिशुओं में से कुछ को रैन्डमली (बेतरतीब ढंग से) एक आर्टिफिशियल लेंस इम्प्लांट दिया गया तो वहीं कुछ शिशु बिना लेंस के ही रहे- यह एक ऐसी स्थिति है जिसे अफैकिया कहा जाता है।   

ग्लूकोमा में ऑप्टिक नर्व क्षतिग्रस्त हो जाती है
जिन बच्चों की मोतियाबिंद हटाने की सर्जरी की जाती है उन बच्चों में ग्लूकोमा होने का जोखिम बढ़ जाता है। ग्लूकोमा- दृष्टि को नुकसान पहुंचाने वाली बीमारी है जो ऑप्टिक नर्व यानी दृष्टि से संबंधित तंत्रिका को क्षतिग्रस्त कर देती है। दरअसल, ऑप्टिक नर्व आंख और ब्रेन के बीच का कनेक्शन है। इस बारे में वैज्ञानिकों का अनुमान है कि मोतियाबिंद को हटाने के लिए जो सर्जरी की जाती है वह इस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करती है कि नवजात शिशु की आंखों से तरल पदार्थ बाहर कैसे आएगा। नतीजतन, शिशु की आंखों पर दबाव बढ़ने लगता है जिससे आंखों की ऑप्टिक नर्व को नुकसान पहुंचता है। 

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आई प्रेशर बढ़ने के कारण बच्चों के आंखों हुआ ग्लूकोमा
जिन 114 बच्चों की सर्जरी हुई थी 10 साल बाद उनमें से 110 बच्चों का दोबारा परीक्षण किया गया। इनमें से 25 आंखों में ग्लूकोमा विकसित हो चुका था और 21 आंखों में ग्लूकोमा होने का संदेह था और इसका कारण है बढ़ा हुआ आई प्रेशर। हालांकि, जिन आंखों में ग्लूकोमा विकसित हुआ और जिनमें नहीं हुआ दोनों ही तरह की आंखों में दृष्टि तीक्ष्णता एक समान थी। जिन बच्चों की नवजात रहते हुए ही मोतियाबिंद हटाने की सर्जरी होती है उनमें जीवनभर ग्लूकोमा होने का खतरा कितना होता है इस बारे में तो कोई जानकारी नहीं है लेकिन इस स्टडी में यह देखने को मिला कि मोतियाबिंद हटवाने के बाद पहले साले में ग्लूकोमा का खतरा 9 प्रतिशत, 5वें साल में 17 प्रतिशत और 10वें साल में 22 प्रतिशत था। 

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नियमित रूप से आंखों की जांच करवाना है जरूरी 
कोई भी बच्चा जिसकी मोतियाबिंद हटाने की सर्जरी होती है उसकी आंखों का साल में कम से कम 1 बार आंखों के विशेषज्ञ डॉक्टर से जांच जरूर होनी चाहिए। अगर किसी बच्चे को ग्लूकोमा या ग्लूकोमा सस्पेक्ट डायग्नोज होता है तो ऐसे बच्चों की आंखों की जांच हर 4 से 6 महीने में जरूर होनी चाहिए। स्टडी के नतीजे यह भी बताते हैं कि नवजात शिशुओं में मोतियाबिंद सर्जरी करने की टाइमिंग बैलेंसिंग ऐक्ट की तरह है। एक तरफ जहां कम उम्र में की गई सर्जरी की वजह से ग्लूकोमा का खतरा बढ़ जाता है तो वहीं सर्जरी करवाने में देरी करने से एम्ब्लियोपिया यानी लेजी आई नाम की बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। यह बच्चों में दृष्टि बाधित होने का सबसे बड़ा कारण है।

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