आमतौर पर 40 हफ्ते की प्रेगनेंसी को नॉर्मल माना जाता है। ऐसे में गर्भावस्था के 37वें हफ्ते से पहले जन्मे बच्चे को प्रीमैच्योर या समय से पहले जन्मे बच्चे के तौर पर देखा जाता है। चूंकि समय से पूर्व जन्मे बच्चे को कई तरह की जटिलाएं होने का खतरा रहता है, यही वजह है कि प्रीमैच्योर बच्चे की मां अक्सर नर्वस और डर में रहती हैं। शिशु 37वें हफ्ते से जितना ज्यादा पहले जन्म लेता है खतरा उतना ही अधिक बढ़ जाता है। 

प्रीमैच्योर या समय से पहले जन्म लेने वाले बच्चे को आमतौर पर नियोनेटल इंटेंसिव केयर यूनिट (एनआईसीयू) में रखा जाता है और वहीं पर उसकी पूरी देखरेख की जाती है। खासकर अगर प्रीमैच्योर बच्चे का जन्म के समय वजन 3 पाउंड यानी करीब 1.40 किलोग्राम से कम है तब तो करीब 2 साल तक आपको बच्चे का खास ध्यान रखने की जरूरत पड़ती है। हालांकि प्रीमैच्योर बच्चे के पैरंट्स अगर कुछ जरूरी बातों का ध्यान रखें तो उनका बच्चा भी दूसरे बच्चों की तरह स्वस्थ तरीके से विकसित हो सकता है। 

(और पढ़ें: जल्दी स्तनपान से प्रीमैच्योर बच्चे में कम होता है हृदय रोग का खतरा)

नॉर्मल या सिजेरियन डिलिवरी से समय पर पैदा होने वाले बच्चे जहां 1-2 दिन या 1 हफ्ते में अस्पताल से डिस्चार्ज होकर घर चले जाते हैं। वहीं प्रीमैच्योर बच्चों को कई-कई दिन, हफ्ते और यहां तक की महीने भर से ज्यादा समय तक भी अस्पताल में रहना पड़ सकता है। अस्पताल में तो एनआईसीयू के अंदर आपको ऐसा लगता है कि आपका शिशु महफूज है लेकिन जब प्रीमैच्योर बच्चे को डिस्चार्ज कर घर ले जाने का समय आता है तो पैरंट्स की चिंता बढ़ जाती है। इन 3 बातों पर निर्भर करता है प्रीमैच्योर शिशु को अस्पताल से डिस्चार्ज कब किया जा सकता है:

  • क्या किसी खुले पालने में शिशु अपने शरीर के तापमान को 24 से 48 घंटे तक बनाए रख पा रहा है?
  • बिना किसी सप्लिमेंट ट्यूब के क्या शिशु बोतल से या ब्रेस्टफीडिंग के जरिए दूध पीने में सक्षम है?
  • क्या नियमित रूप से शिशु का वजन बढ़ रहा है? 

ज्यादातर प्रीमैच्योर बच्चों को अस्पताल से डिस्चार्ज होने के बाद किसी खास तरह के मेडिकल सपोर्ट की जरूरत नहीं होती लेकिन सामान्य बच्चों की तुलना में नियमित रूप से मेडिकल केयर और जांच की जरूरत पड़ती है। 

  1. प्रीमैच्योर बच्चे के विशिष्ट लक्षण - Premature baby characteristics
  2. समय से पूर्व जन्मे बच्चे को खास देखभाल की जरूरत क्यों होती है? - Preterm baby ko special care ki zarurat kyo hoti hai?
  3. प्रीमैच्योर शिशु की घर पर ऐसे करें देखभाल - Premature shishu ka ghar pe aise rakhe dhyan
  4. प्रीमैच्योर शिशु की दूध और पोषण से जुड़ी जरूरतें - Preterm baby ki doodh aur poshan se judi zarurat
  5. प्रीमैच्योर शिशु के लिए ब्रेस्ट मिल्क - Premature baby ke liye breast milk
प्रीमैच्योर बच्चे की ऐसे करें देखभाल के डॉक्टर
  • औसतन एक सामान्य फुल टर्म शिशु का जन्म के वक्त वजन 7 पाउंड यानी 3.17 किलोग्राम होता है लेकिन एक प्रीमैच्योर बच्चे का जन्म के समय वजन 5 पाउंड यानी 2.26 केजी या इससे भी कम हो सकता है। 
  • हालांकि प्रेगनेंसी के 28वें हफ्ते के बाद जन्म लेने वाले बच्चे जिनका वजन 2 पाउंड यानी करीब 1 केजी भी अगर हो तो उनके भी जीवित बचने की संभावना काफी अधिक होती है।
  • गर्भावस्था के 28वें हफ्ते के बाद जन्म लेने वाले 10 में से 8 बच्चों को लंबे समय तक स्वास्थ्य या विकास से जुड़ी समस्याएं होने की आशंका बेहद कम होती है।
  • प्रेगनेंसी के 28 हफ्ते से पहले जन्म लेने वाले शिशु को कई तरह की जटिलताएं हो सकती हैं, उन्हें गहन इलाज और एनआईसीयू में लंबे समय तक रखने की जरूरत पड़ सकती है। 
  • आपके शिशु का जन्म जितना पहले होगा वह देखने में उतना ही छोटा होगा, उसका सिर उसके बाकी के शरीर की तुलना में बड़ा दिखेगा और शरीर में चर्बी भी उतनी ही कम होगी।
  • बेहद कम चर्बी की वजह से शिशु की त्वचा बेहद पतली और पारदर्शी महसूस होगी जिस वजह से उसकी नसें तक साफ नजर आएंगी। शिशु के कंधे और पीठ पर बाल भी नजर आएंगे।
  • चूंकि शिशु के शरीर में कोई सुरक्षात्मक फैट नहीं है इसलिए प्रीमैच्योर बच्चे को कमरे के सामान्य तापमान में भी ठंड लगने का खतरा रहता है। यही वजह है कि प्रीमैच्योर शिशु को इन्क्यूबेटर या स्पेशल हीटिंग उपकरण रेडिएंट वॉर्मर के अंदर रखा जाता है।
  • प्रीमैच्योर शिशु जब भी रोता है तो उनकी आवाज बेहद धीमी निकलती है और उन्हें सांस लेने में तकलीफ महसूस होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि समय पूर्व जन्म लेने वाले बच्चे का श्वसन तंत्र कमजोर होता है और पूरी तरह से विकसित नहीं हुआ होता। 

(और पढ़ें: शिशु को कपड़े में लपेटने का सही तरीका और इसके फायदे)

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चूंकि शिशु का जन्म प्रेगनेंसी के फुल टर्म से पहले ही हो गया है इसलिए शिशु इस वक्त दुनिया में जीवन जीने के तरीकों को लेकर पूरी तरह से तैयार नहीं है। उनका छोटा सा शरीर अब भी पूरी तरह से विकसित नहीं हुआ है खासकर उनके फेफड़े, पाचन तंत्र, रोग प्रतिरोधक क्षमता और उनकी त्वचा। हालांकि चिकित्सिय सुविधाएं अब इतनी विकसित हो चुकी हैं कि प्रीमैच्योर बच्चे भी कुछ दिन, कुछ हफ्ते और महीनों तक जीवित रह सकते हैं जब तक कि वे पूरी तरह से मजबूत न बन जाएं।

अस्पताल से डिस्चार्ज करवाकर जब आप अपने प्रीमैच्योर शिशु को घर लाती हैं तो इस बात का पूरा ध्यान रखें कि शिशु का इम्यून सिस्टम यानी रोगों से लड़ने की क्षमता अभी विकासशील अवस्था में है और बेहद कमजोर है जिस वजह से शिशु को इंफेक्शन का खतरा बना रहता है। लिहाजा घर पर प्रीमैच्योर शिशु की देखभाल के दौरान इन बातों का ख्याल रखें:

बच्चे को घर से बाहर कम से कम निकालें

डॉक्टर के पास नियमित चेकअप के लिए जाने के अलावा शिशु को शुरुआती कुछ हफ्तों तक घर से बाहर बिलकुल लेकर न निकलें। खासकर सर्दी के मौसम में क्योंकि इस दौरान वायरल इंफेक्शन का खतरा सबसे अधिक होता है। साथ ही डॉक्टर से भी पूछें कि शुरुआती कुछ हफ्तों में आपके शिशु का संपर्क दूसरे बच्चों या वयस्कों के साथ कितना और किस तरह का होना चाहिए।

पब्लिक प्लेस पर न जाएं, घर में भी मेहमानों की आवाजाही कम करें

  • ज्यादातर डॉक्टर यही सलाह देते हैं कि समय से पहले जन्मे बच्चे को लेकर पब्लिक प्लेस या भीड़भाड़ वाली जगहों पर नहीं जाना चाहिए।
  • साथ ही घर में भी मेहमानों की आवाजाही जहां तक संभव हो कम से कम ही रखें। अगर कोई भी व्यक्ति बीमार हो तो उसे अपने घर आने से मना कर दें।
  • बच्चे को छूने से पहले हर किसी को अपने हाथों को साबुन पानी से अच्छी तरह से धोना चाहिए या सैनिटाइजर का इस्तेमाल करना चाहिए।
  • साथ ही जिस घर में प्रीमैच्योर शिशु हो उस घर में किसी को धूम्रपान नहीं करना चाहिए।

शिशु को पीठ के बल सुलाएं

प्रीमैच्योर शिशु की सेहत बनी रहे इसके लिए शिशु का सही तरीके से दूध पीना और सोना बेहद जरूरी है। आप महसूस करेंगे कि एक फुल टर्म बेबी की तुलना में आपका प्रीटर्म बेबी ज्यादा सोएगा लेकिन कम समय के लिए। फुल टर्म बेबी की तरह प्रीमैच्योर शिशु को भी पीठ के बल ही सुलाना चाहिए ताकि आकस्मिक नवजात मृत्यु सिंड्रोम (SIDS) के खतरे को कम किया जा सके।

(और पढ़ें: शिशु के जन्म के बाद का पहला घंटा)

कंगारू केयर की प्रैक्टिस करें

कंगारू केयर एक खास तकनीक है जहां समय से पहले जन्मे शिशु को सीधे खड़े होने की पोजिशन में मां के सीने पर दोनों ब्रेस्ट के बीच रखा जाता है ताकि मां और शिशु के बीच स्किन टू स्किन कॉन्टैक्ट हो सके। साथ ही शिशु के सिर को इस तरह से रखा जाता है कि शिशु का कान मां के हृदय पर हो ताकि वह उसकी धड़कन सुन सके। कई स्टडीज में यह बात साबित हो चुकी है कि कंगारू केयर की मदद से प्रीमैच्योर शिशु को कई तरह से फायदा होता है:

  • जब मां और शिशु के बीच स्किन टू स्किन कॉन्टैक्ट होता है तो इससे शिशु के शरीर के तापमान को बनाए रखने में मदद मिलती है। अगर शिशु का तापमान कम होता है तो वह मां की त्वचा के संपर्क में आकर बढ़ जाता है।
  • कंगारू केयर के जरिए ब्रेस्टफीडिंग में भी मदद मिलती है और मां का दूध भी बढ़ता है।
  • कंगारू केयर की मदद से शिशु गहरी नींद में सो जाता है जिससे उसे शरीर की क्रियाओं को करने के लिए एनर्जी मिलती है और उसका वजन भी बढ़ने लगता है।
  • कंगारू केयर के जरिए मां और बच्चे के बीच बॉन्डिंग और घनिष्ठता भी बढ़ती है।

नियोनेटल इंटेंसिव केयर यूनिट (एनआईसीयू) में भर्ती प्रीमैच्योर शिशु को इन 3 तरह से दूध दिया जा सकता है:

  • मां का दूध ब्रेस्ट मिल्क
  • फॉर्मूला मिल्क
  • मां का दूध और फॉर्मूला मिल्क का मिश्रण

(और पढ़ें: नवजात शिशु को कितना और कितनी बार फॉर्मूला मिल्क देना चाहिए)

सभी स्टडीज में यह बात साबित हो चुकी है कि मां का दूध ही सभी तरह के नवजात शिशुओं के लिए पोषण या न्यूट्रिशन का बेस्ट सोर्स है। फिर चाहे शिशु फुल टर्म हो या फिर प्रीटर्म (समय पूर्व)। हालांकि अगर किसी वजह से मां के ब्रेस्ट मिल्क का उत्पादन कम हो रहा हो या वह बच्चे के लिए पूरा न पर रहा हो तो इंफेंट फॉर्मूला मिल्क का इस्तेमाल कर शिशु के दूध की जरूरतों को पूरा किया जा सकता है।

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समय से पहले जन्मे नवजात शिशु को फुल टर्म नवजात की तुलना में अधिक पोषक तत्वों की जरूरत होती है और इसका सबसे बड़ा कारण ये है कि शिशु, प्रेगनेंसी की आखिरी तिमाही के कुछ हिस्सों को मिस कर देते हैं। यही वह समय होता है जब पोषक तत्व जमा होते हैं और शिशु का तेजी से विकास होने लगता है।

प्रेगनेंसी की तीसरी तिमाही के दौरान गर्भ में पल रहा भ्रूण रोजाना करीब 750एमएल अमीनिओटिक फ्लूइड को निगल लेता है जिससे उसके पाचन क्षेत्र के विकास को मदद मिलती है। समय से पहले जन्मे शिशु का पाचन क्षेत्र कमजोर होता है और इसलिए ऐसे शिशु के लिए मां का दूध (ब्रेस्ट मिल्क) ही सबसे अनुकूल है क्योंकि इसमें कई तरह के सुरक्षात्मक इन्जाइम्स, हार्मोनेस और ग्रोथ फैक्टर्स होते हैं जो शिशु के जठरांत्र के विकास में मदद करते हैं।

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संदर्भ

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