मानव की हमेशा से ब्रह्मांड के बारे में जानने को उत्सुक रहता है। शायद यही वजह है कि हम अक्सर चांद-तारों की बातें करते हैं। भविष्य में पृथ्वी रहने लायक नहीं रहेगी, इसलिए वैज्ञानिक वर्षों से किसी ऐसे ग्रह की तलाश में हैं, जहां मानव जाति को जिंदा रखा जा सके। इसी खोज में हम बार-बार आसमान का रुख करते हैं। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ने तो साल 1969 में ही इंसान को चांद की सतह पर उतार दिया था। स्पेस में जाने वाले पहले इंसान यूरी गागरिन थे, जिन्हें यूएसएसआर ने 1961 में धरती की कक्षा में भेजा था। भारतीय अंतरिक्ष एजेंसी इसरो भी भविष्य में इंसान को स्पेस और चांद पर भेजने की प्लानिंग कर रही है। इंसान को स्पेस में भेजने का मिशन कतई आसान नहीं है और इसके लिए दुनियाभर के सभी वैज्ञानिक प्रशंसा के पात्र हैं। धरती के गुरुत्वाकर्षण से माइक्रोग्रैविटी में जाने का इंसान पर काफी गंभीर मनोवैज्ञानिक और शारीरिक प्रभाव पड़ता है। माइक्रोग्रैविटी में ज्यादा वक्त तक रहने पर इंसान की आंत और शरीर के अन्य अंगों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

अब तक रिसर्च के लिए स्पेस साइंटिस्ट माइक्रोग्रैविटी में जाते हैं। निकट भविष्य में सैर-सपाटे के लिए भी इस क्षेत्र को खोलने की योजना है। यानि जिनके पास खर्च करने के लिए लाखों रुपये हैं, वे स्पेस में जाकर धरती और चांद की कैमिस्ट्री देख सकते हैं; लेकिन यह उनके पेट की कैमिस्ट्री के लिए ठीक नहीं। माइक्रोग्रैविटी में ज्यादा वक्त तक रहने से इंसान की आंतों में मौजूद एपिथेलियल सेल को नुकसान पहुंच सकता है। एपिथेलियल सेल हमारी आंतों में मौजूद बैक्टीरिया, फंगी और वायरस को शरीर के अन्य अंगों में जाने से रोकने का (रोबस्ट बैरियर के तौर पर) काम करते हैं। अमेरिका में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्नियां (यूसी), रिवरसाइड के शोध में यह बात सामने आयी है। शोध में पता चला है कि स्पेस में जाने पर माइक्रोग्रैविटी एनवायरमेंट मनोवैज्ञानिक के साथ ही गैस्ट्रोएंटेराइटिस (आंत्रशोध) जैसी बीमारियां हो सकती हैं।

शोधकर्ताओं ने बताया कि माइक्रोग्रैविटी की वजह से इंफेक्शन का खतरा काफी बढ़ सकता है। इसके अलावा क्रॉनिक इंफ्लेमेटरी कंडीशन (पुरानी आंतरिक सूजन या जलन संबंधी) रोग जैसे पेट दर्द, सीलिएक डिजीज (इसमें छोटी आंत ग्लूटेन के प्रति हाइपरसेंसिटिव हो जाती है और इससे पाचन क्रिया को नुकसान पहुंचता है), टाइप 1 डायबिटीज, लिवर के रोग भी इसकी वजह से हो सकते हैं। पूर्व में हुए शोधों में भी पता चला था कि माइक्रोगैविटी के चलते इंसान की रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्यून सिस्टम) कमजोर हो जाती है। यही नहीं आंत से जुड़े रोग भी हो सकते हैं, जिसमें फूड बॉर्न बैक्टीरिया साल्मोनेला से भी ग्रसित हो सकते हैं।

क्या होती है माइक्रोग्रैविटी
माइक्रोग्रैविटी को सीधे शब्दों में जीरो ग्रैविटी या वेटलेसनेस (वजनरहित होना) भी कहा जा सकता है। हालांकि इस शब्द में मौजूद माइक्रो से इसका अर्थ कुछ हद तक बदलता है, जिसका अर्थ है धरती के गुरुत्व बल के मुकाबले 10 लाख गुना कम गुरुत्वाकर्षण। यही वजह है कि स्पेस में पानी की बूंद भी आसानी से हवा में घूमते हुए दिखती है, जबकि धरती पर यह तेजी से जमीन पर गिर जाती है। गुरुत्वाकर्षण इतना कम होने की वजह से एस्ट्रोनॉट बड़ी-बड़ी और भारी-भरकम चीजों को भी आसानी से इधर-उधर कर लेते हैं। माइक्रोग्रैविटी में लंबे समय तक रहने से बोन और मसल मास गिर सकता है, हालांकि स्पेस में कम समय बिताने पर मितली आने जैसे लक्षण दिख सकते हैं। 

यूसी रिवरसाइड के प्रोफेसर और इस अध्ययन का नेतृत्व कर रहे डेकलान मैककोल ने बताया कि माइक्रोग्रैविटी एनवायरमेंट हमारे शरीर में मौजूद एपिथेलियल सेल को कमजोर बना देता है, जिससे हमारे शरीर का सुरक्षाचक्र टूट जाता है। इसमें बड़ी बात यह है कि माइक्रोग्रैविटी से बाहर आने के बावजूद अगले 14 दिनों तक यह स्थिति बनी रह सकती है।

दिमाग पर भी पड़ता है प्रतिकूल प्रभाव
माइक्रोग्रैविटी में रहने का शरीर के अन्य अंगों के साथ ही दिमाग पर भी असर पड़ता है। रूस और बेल्जियम के शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने इस पर अध्ययन किया है। इस अध्ययन का रिजल्ट फ्रंटीयर्स इन साइकोलॉजी में पब्लिश हुआ है। शोध के अनुसार स्पेस ट्रैवल का दिमाग पर गंभीर असर पड़ता है। ब्रेन की कनेक्टीविटी खास तौर पर परसेप्शन और मूवमेंट पर असर दिखता है। स्पेस ट्रैवल के बाद इंसुलर और पैरिटल कोर्टिस दिमाग के अन्य अंगों के साथ और बेहतर तरीके से काम करने लगते हैं, जबकि सेरेबेलम और वेस्टीबुलर न्युक्लाई की कनेक्टिविटी कमजोर पड़ जाती है। इससे सुनने की क्षमता पर असर पड़ता है।

और भी वजहें हैं इस तरह के नुकसान की
myUpchar से जुड़ी डॉक्टर शहनाज जफर कहती हैं, 'ऐसा नहीं है कि माइक्रोग्रैविटी में रहने से ही एपिथेलियल सेल को नुकसान पहुंचता है। कई अन्य वजहें भी हैं, जिनसे हमारे शरीर के इन प्राकृतिक रक्षकों को नुकसान पहुंचता है। इनमें नॉन एस्टेरॉयडल एंटी इंफ्लेमेट्री ड्रग (NSAID), एल्कोहल और अन्य कारण हो सकते हैं। एपिथेलियल सेल को नुकसान पहुंचने से हमारी आंतों में मौजूद बैक्टीरिया और फंगी हमारे खून में पहुंच जाता है। यह हमारे शरीर में एंटीजन की तरह काम करते हैं और इनसे लड़ने के लिए हमारा शरीर प्राकृतिक तौर पर एंटीबॉडी बनाता है। ऐसा होने पर हमारा शरीर अपने ही किसी भाग को बाहरी समझकर उस पर हमला कर देता है। इसमें शरीर अपनी ही किडनी, दिल या किसी अन्य भाग को डैमेज कर सकता है। इसे ऑटो इम्यून डिजीज कहा जाता है। हालांकि, रिसर्च के अनुसार माइक्रोग्रैविटी से बाहर निकलने के करीब 14 दिनों में एपिथेलियल सेल वापस ठीक हो जाता है, इसलिए कम समय के लिए ऐसा होने की वजह से हो सकता है यह उतना ज्यादा नुकसानदायक न हो। फिर भी लंबी अंतरिक्ष यात्राओं और दूसरे ग्रहों पर बसने की इच्छा अगर इंसान रखता है तो उसे इस समस्या का निदान ढूंढना होगा।'

मैककोल और उनकी टीम के इस शोध से इतना तो तय है कि भविष्य में लंबी दूरी की स्पेस यात्राओं और दूसरे ग्रह पर बसने की तैयारियों के बीच हमें पेट के इस तरह के रोगों से लड़ने के लिए भी कदम उठाने होंगे। अन्यथा स्पेस ट्रैवल और दूसरे ग्रह पर बसने की उत्सुकता जो हम इंसान दिखा रहे हैं, उसमें इस तरह के रोग अडंगा लगा सकते हैं।

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