विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने बच्चों में ड्रग-सस्केप्टिबल ट्यूबरकुलोसिस (टीबी) से जुड़े एक महत्वपूर्ण अध्ययन के परिणामों का स्वागत किया है। 'शॉर्टर ट्रीटमेंट फॉर मिनिमल ट्यूबरकुलोसिस इन चिल्ड्रेन' या 'शाइन' नाम का यह अध्ययन ड्रग-सस्केप्टिबल ट्यूबरकुलोसिस के इलाज को छोटा करने के प्रयासों से जुड़ा था। खबर के मुताबिक, स्टडी में इन प्रयासों के सकारात्मक परिणाम निकले हैं, जिनका डब्ल्यूएचओ ग्लोबल टीबी प्रोग्राम ने स्वागत किया है। हाल में ये परिणाम लंग हेल्थ को लेकर आयोजित 51वें (वर्चुअल) यूनियन वर्ल्ड कॉन्फ्रेंस में पेश किए गए हैं।

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शाइन एक फेज 3 रैंडमाइज्ड ओपन-लेबल ट्रायल के तहत किया गया अध्ययन है, जिसमें स्मियर-नेगेटिव, नॉन-सिवियर टीबी (मिनिमल टीबी) से ग्रस्त बच्चों के अलग-अलग दवाओं के चार और छह महीने के ट्रीटमेंट की तुलना की गई थी। इस ट्रीटमेंट में रिफैम्पिसिन, आइसोनियाजिड, पाइराजीनामाइड प्लस या माइनस इथम्ब्यूटल दवाओं का इस्तेमाल किया गया था। डब्ल्यूएचो के मुताबिक, दक्षिण अफ्रीका, यूगांडा, जांबिया और भारत में कुल पांच जगहों पर अध्ययन से जुड़े परीक्षण किए गए थे, जिनमें 16 साल से कम उम्र के 1,200 से ज्यादा बच्चों को शामिल किया गया था। इनमें 127 बच्चे एचआईवी संक्रमण से भी पीड़ित थे। ट्रायल के लिए मिनिमल टीबी को टीबी माना गया, जो स्पटम स्मियर नेगेटिव और नॉन-सिवियर दोनों होता है।

छह या चार महीने के ट्रीटमेंट के लिए बच्चों का अलग-अलग चयन किया गया। चार महीने वाली उपचार अवधि में इलाज के चरण को चार महीने से कम कर दो महीने किया गया। इसके बाद बच्चों का 18 महीने तक फॉलोअप किया गया। इस दौरान एक महत्वपूर्ण बात यह पता चली कि छह महीने के स्टैंडर्ड ट्रीटमेंट के लिहाज से चार महीनों का उपचार कम प्रभावी नहीं था। शोधकर्ताओं ने जब छह और चार महीनों के टीबी ट्रीटमेंट में तुलना की तो पाया कि आंकड़ों की दृष्टि से दोनों ही ट्रीटमेंट में कोई खास अंतर नहीं था। दोनों ही समूह के बच्चों में दवाओं से एक जैसे साइड इफेक्ट दिखे थे।

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दुनियाभर में हर साल 12 लाख बच्चे टीबी से ग्रस्त पाए जाते हैं। इनमें से दो लाख 30 हजार बच्चों की मौत हो जाती है। ऐसे ज्यादातर पीड़ित बच्चों को इलाज नहीं मिल पाता, जबकि उनमें यह बीमारी कम गंभीर रूप से विकसित होती है। इसके बावजूद बड़ी संख्या में उनकी मौत हो जाती है। ज्यादा लंबे ट्रीटमेंट से इन बच्चों के परिवारों और स्वास्थ्य सेवाओं पर काफी बोझ पड़ता है। लंबी अवधि वाले ट्रीटमेंट में पहले से एचआईवी ग्रस्त टीबी पीड़ित बच्चों के लिए खतरा और बढ़ जाता है। उनमें टॉक्सिसिटी और दवाओं के आपसी इंटरेक्शन के खतरे हो सकते हैं। लगातार धैर्य रखते हुए गोलियां लेते रहना भी अपनेआप में एक चुनौती बन जाता है। ऐसे में इलाज का समय अगर कम करने में वैज्ञानिक कामयाब होते हैं तो यह डब्ल्यूएचओ की टीबी को खत्म करने से जुड़ी सुनियोजित रूपरेखा 'एंड टीबी स्ट्रेटिजी' के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण होगा। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि इस अध्ययन के परिणामों में इतनी विश्वसनीयता है कि इनके आधार पर बच्चों के ड्रग-सस्केप्टिबल टीबी के इलाज से जुड़े दिशा-निर्देशों को अपडेट किया जा सके। इसके लिए ट्रायल से जुड़े फाइनल डेटा के उपलब्ध होने का इंतजार किया जा रहा है।

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