कोलकाता तुलनात्मक रूप से कम वाहन और उद्योग मौजूद होने के बावजूद पूरे साल भारत के पांच सबसे प्रदूषित शहरों में से एक रहता है। यही नहीं दिवाली के दौरान इस शहर में दिल्ली की तुलना में पटाखे भी कम फूटते हैं।

यहां तक के 2016 में जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट में कोलकाता को दिल्ली के बाद देश का दूसरा सबसे प्रदूषित शहर बताया था। इससे भी बदतर यह है कि शहर के पर्यावरणविदों के पास यह दिखाने के भरपूर आंकड़े हैं कि शहर में प्रदूषण का स्तर हर दिन खतरनाक गति से बढ़ रहा है।

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शहर के पर्यावरणविदों के अनुसार कोलकाता में प्रदूषण के पीछे सबसे बड़े कारणों में से एक ऑटो-रिक्शा चालकों द्वारा केरोसिन मिश्रित ऑटोमोबाइल ईंधन या एलपीजी का व्यापक उपयोग है। इसके अतिरिक्त, शहर में खुली जगह का हिस्सा केवल सात प्रतिशत रह गया है जो सभी महानगरीय शहरों में सबसे कम है। पर्यावरणविद मानते हैं कि आदर्श रूप से, आबादी के घनत्व के अनुसार खुली जगह 25 से 30 प्रतिशत के बीच होनी चाहिए। कोलकाता में मौजूद वाहनों के लिए सड़क भी दिल्ली और चेन्नई के मुकाबले कम है। 

शहर के पर्यावरणविदों का कहना है कि वर्तमान में, कोलकाता की वायु गुणवत्ता डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में किए गए उल्लेख से भी बदतर है। हालात खतरनाक होते जा रहे है और यह स्थिति लगभग दिल्ली के समान ही है। कोलकाता की वायु गुणवत्ता दिल्ली और अन्य महानगरों की तुलना में तेजी से गिर रही है। उनका यह भी कहना है कि कोलकाता को अधिक हरा-भरा बनाने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए।

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ऑटो-रिक्शा मालिकों द्वारा केरोसिन या एलपीजी में मिश्रित डीजल के उपयोग के अलावा, सड़क के किनारे बने ढाबे खराब गुणवत्ता वाले नॉन-कुकिंग कोयले (जिसे प्रतिबंधित किया गया है) का उपयोग करके समस्या को बढ़ा रहे है। नगरपालिका निकाय और पुलिस को इन कानून का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करनी चाहिए।

इसके अलावा, कोलकाता और आसपास के अधिकांश बिजली संयंत्र जीवाश्म ईंधन पर आधारित हैं। जबकि इन्हें पश्चिमी और उत्तरी भारत में स्थित बिजली संयंत्रों की तरह सौर ऊर्जा पर आधारित करना चाहिए। दिल्ली में जहां लोग सीएनजी का उपयोग कर रहे हैं इसके विपरीत यहां सभी वाहन पेट्रोलियम या डीजल पर चलते हैं। इसमें भी बदलाव किया जा सकता है।

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