कोविड-19 महामारी की रोकथाम में सबसे भरोसेमंद हथियार मानी जा रही ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और एस्ट्राजेनेका की कोरोना वैक्सीन चडॉक्स1 एनसीओवी2019 और इसके ट्रायल पर कई मेडिकल विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं ने सवाल खड़े किए हैं। दरअसल, बुधवार को इस टीके के संयुक्त निर्माताओं ने माना कि वैक्सीन की मैन्युफैक्चरिंग में कोई 'त्रुटि' हुई थी। एस्ट्राजेनेका ने अपने बयान में बताया है कि इस एरर का पता उसे वैक्सीन को कोविड-19 के खिलाफ उच्च स्तर पर प्रभावी करार दिए जाने के बाद चला। हालांकि बयान में कंपनी ने यह नहीं बताया कि क्यों वैक्सीन के अध्ययन से जुड़े ट्रायल में कुछ प्रतिभागियों को वैक्सीन का पहला डोज उतना नहीं मिल पाया, जितना की दूसरे प्रतिभागियों को मिला।

यहां बता दें कि ऑक्सफोर्ड वैक्सीन को दो अलग-अलग डोजों के साथ कोरोना वायरस के खिलाफ सक्षम पाया गया है। इसी हफ्ते ब्रिटिश कंपनी ने घोषणा करते हुए दावा किया था उसकी वैक्सीन डेढ़ और दो डोज के साथ कोविड-19 की रोकथाम में (क्रमशः) 90 प्रतिशत और 62 प्रतिशत से ज्यादा प्रभावी पाई गई है। शुरू में यह समझा गया कि 90 प्रतिशत क्षमता वाले डोज में पहला शॉट आधी मात्रा और दूसरा शॉट पूरी मात्रा में देना प्रयोग का हिस्सा था, जो सफल रहा। लेकिन अब पता चल रहा है कि असल में ऐसा 'मैन्युफैक्चरिंग एरर' के कारण हुआ। तो क्या कोरोना वैक्सीन के प्रभाव को जानने में ऑक्सफोर्ड और एस्ट्राजेनेका को संयोग से सफलता मिली? इस सवाल ने कई विशेषज्ञों को उलझन में डाला हुआ है। ऐसा होना लाजमी भी है कि क्योंकि एस्ट्राजेनेका ने इस त्रुटि को खुद स्वीकार किया है।

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बीते सोमवार को ऑक्सफोर्ड और एस्ट्राजेनेका ने अपने अंतिम चरण के ट्रायल से जुड़े आंशिक परिणाम सामने रखे थे, जो यूनाइटेड किंगडम और ब्राजील में हुए वैक्सीन परीक्षणों से संबंधित थे। इन ट्रायलों में प्रतिभागियों को वैक्सीन के अलग-अलग डोज दिए गए थे, यह जानने के लिए उनमें से कौन सा डोज सबसे उचित रहेगा और बीमारी के खिलाफ सक्षम होने के साथ सुरक्षित होगा। वॉलन्टियर्स पर अलग-अलग कॉम्बिनेशन और डोजेज आजमाने के बाद उनके प्रभाव की तुलना उन प्रतिभागियों से की गई, जिन्हें शोधकर्ताओं ने सेलाइन या मेनन्जाइटस (गर्दन तोड़ बुखार) की वैक्सीन दी गई थी।

इस प्रक्रिया से पहले वैज्ञानिकों ने सभी स्टेप्स को क्रॉस चेक किया था और परिणामों का विश्लेषण करने संबंधी प्रोटोकॉल्स की भी व्याख्या की थी, क्योंकि इस काम में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी होने का मतलब परिणामों पर सवाल उठना था, जो अब होता दिख रहा है। बुधवार को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने अपने एक बयान में बताया कि ट्रायल में इस्तेमाल हुई कुछ शीशियों में वैक्सीन सही मात्रा में नहीं थी। इस कारण कुछ प्रतिभागियों को पहला डोज आधा ही मिल पाया। यूनिवर्सिटी ने कहा कि उसने इस विषय को ड्रग नियामकों के समक्ष उठाया था, जिसके बाद इस आखिरी चरण के ट्रायल को दो समूहों के रूप में पूरा करने का फैसला किया गया। ब्रिटेन के प्रतिष्ठित संस्थान ने यह भी बताया कि अब इस मैन्युफैक्चरिंग एरर को ठीक कर लिया गया है। हालांकि इससे पहले वैक्सीन और ट्रायल के परिणामों पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं।

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क्या कह रहे हैं विशेषज्ञ?
चडॉक्स1 एनसीओवी2019 पर सवाल उठाने वाले मेडिकल एक्सपर्ट का कहना है कि ट्रायल में बहुत कम लोगों को कम डोज वाली वैक्सीन दी गई है। ऐसे में यह जानना मुश्किल है कि परीक्षण में बीमारी के खिलाफ दिखी उसकी क्षमता वास्तविक है या केवल आंकड़ों का खेल है। एस्ट्राजेनेका के आधिकारिक बयान के मुताबिक, प्राथमिक विश्लेषण से जुड़े 8,895 प्रतिभागियों को दो फुल वैक्सीन डोज दिए गए थे, जबकि डेढ़ डोज वाले प्रतिभागियों की संख्या 2,741 थी। यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि यह संख्या ट्रायल से पहले निर्धारित नहीं की गई थी।

समाचार एजेंसी एसोसिएटिड प्रेस की रिपोर्ट एक और तथ्य की ओर ध्यान खींचती है। इसके मुताबिक, जिन 2,741 प्रतिभागियों को पहला डोज आधा और दूसरा डोज पूरा दिया गया था, उनमें से किसी की भी उम्र 55 वर्ष से ज्यादा नहीं थी, जबकि घोषणा में एस्ट्राजेनेका ने वैक्सीन को 70 साल से ज्यादा उम्र वाले बुजुर्ग लोगों के लिए भी समान रूप से प्रभावी बताया था। लेकिन रिपोर्ट बताती है कि सबसे अधिक प्रभाव वाला डोज इस उम्र के लोगों को दिया ही नहीं गया। युवा लोगों के लिए कहा जाता है कि उनका इम्यून रेस्पॉन्स वैसे ही बुजुर्गों की अपेक्षा ज्यादा मजबूत होता है, ऐसे में यह सवाल उठना तर्कसंगत है कि ऑक्सफोर्ड वैक्सीन तुलनात्मक रूप से 90 प्रतिशत प्रभावी इसलिए पाई गई, क्योंकि इसके डेढ़ डोज को बुजुर्ग आयु वाले लोगों को लगाया ही नहीं गया।

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बात यहीं खत्म नहीं होती। एस्ट्राजेनेका ने दो समूहों के परिणामों के आधार पर वैक्सीन की अलग-अलग डोजों के अलग-अलग परिणाम बताए। लेकिन उसके साथ मिलकर वैक्सीन बनाने वाली ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं का कहना है कि वे इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हैं कि वैक्सीन कम डोज के साथ कैसे ज्यादा प्रभावी निकली। इन वैज्ञानिकों ने कहा है कि वे इसका पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि कुछ ने अनुमान के तहत कहा है कि शायद वैक्सीन से सबसे अच्छे परिणाम पाने के लिए यही सबसे उपयुक्त डोज था, जो न बहुत ज्यादा था और न बहुत कम।

आगे क्या?
ट्रायल से जुड़े परिणामों और अन्य जानकारियों को मेडिकल पत्रिकाओं में प्रकाशित किया जाएगा। साथ ही इन्हें यूके के ड्रग नियामकों के समक्ष भी रखा जाएगा ताकि वे तय कर सकें कि वैक्सीन के इस्तेमाल और वितरण की अनुमति देनी है या नहीं। उधर, अमेरिका में कोरोना वायरस वैक्सीन से जुड़े प्रोग्राम 'ऑपरेशन वॉर्प स्पीड' का नेतृत्व कर रहे मॉनसेफ स्लाओई का कहना है कि अमेरिकी स्वास्थ्य अधिकारी ऑक्सफोर्ड वैक्सीन से पैदा हुए इम्यून रेस्पॉन्स को जानने का प्रयास कर रहे हैं। उनके मुताबिक, उसी हिसाब से एस्ट्राजेनेका के अध्ययन को मोडिफाई करने का फैसला किया जा सकता है। मॉनसेफ ने कहा, 'लेकिन ऐसा डेटा और वैज्ञानिक आधार पर ही किया जाएगा।'


उत्पाद या दवाइयाँ जिनमें कोविड-19: क्या संयोग से ऑक्सफोर्ड वैक्सीन ने दिए अच्छे परिणाम? 'मैन्युफैक्चरिंग एरर' का पता चलने के बाद ट्रायल पर उठे सवाल है

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