लोग इलाज के लिए डॉक्टर के पास जाते हैं। फिर डॉक्टर जो भी उन्हें बताते हैं या सुझाते हैं उसे बिना किसी सवाल के मानते हैं। लोगों को विश्वास होता है कि डॉक्टर के पास उनकी हर बीमारी का इलाज का। ये विश्वास काफी हद तक सही भी है, लेकिन हैरानी तब होती है जब डॉक्टर द्वारा सुझाई गई दवा असर नहीं दिखाती।

हर दिन विज्ञान के क्षेत्र में कोई न कोई नई रिसर्च होती रहती है। इन रिसर्च में दवाओं के नए नमूने और दवाओं के कई नुकसान सामने आते हैं। अब टीबी को ही देख लीजिए इस बीमारी के दौरान दिया जाने वाला टीका कुछ लोगों पर कम असर दिखा रहा है। हाल ही में इस पर की गई शोध पर चर्चा कर जानते हैं टीबी के टीके के बारे में।

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अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा बंदरों पर की गई रिसर्च के अनुसार बीसीजी का टीका टीबी के इन्फेक्शन से लड़ने में  फायदेमंद है। बशर्ते इसे स्किन पर लगाए जाने की जगह नसों पर लगाया जाए। 

बीसीजी का टीका
बीसीजी का टीका बैक्टीरियोलॉजिस्ट अल्बर्ट कैमेट्टे और कैमिल ग्युरिन ने 20वीं सदी में फ्रांस में बनाया था। सबसे पहले इसका उपयोग एक नवजात पर 1921 में किया गया था और उसके बाद पूरे विश्व में इसकी चर्चा फैल गई। ये टीका बच्चों और नवजात शिशुओं को टीबी मेनिनजाइटिस और टीबी के अन्य खतरनाक रूपों से बचाता है। जबकि व्यस्कों और किशोरों में इसके फायदे कम देखे गए हैं।

बंदरों पर की गई शोध
अमेरिकी वैज्ञानिकों के अनुसार दस में से नौ बंदर जिन्हें नसों के जरिए इंसान के टीके के डोज से 100 गुना ज्यादा डोज दिया गया। वो सब टीबी के इन्फेक्शन से बच गए। इन नौ में से छह बंदरों को टीबी के संपर्क में आने के बाद भी टीबी नहीं हुआ।

जॉन फ्लिन यूनिवर्सिटी ऑफ पिट्सबर्ग के माइक्रोबायोल़ॉजी और मोलिक्युलर जेनेटिक्स के प्रोफेसर का कहना है कि इस तरह के रिजल्ट काफी आश्चर्यजनक हैं। लोगों पर इनका इस्तेमाल करने से पहले काफी रिसर्च की जाने की जरूरत है। पहले हमें ये पता करना होगा कि क्या इन दवाओं के कम डोज भी लोगों के लिए उतने ही असरदार हैं।

आगे की गई शोध
फ्लिन और उनके सहयोगियों ने बंदरों को छह समूहों में बांटा-

  • एक समूह के बंदरों को कोई टीका नहीं लगाया गया
  • दूसरे समूह के बंदरों को अलग-अलग तरीकों से टीका लगाया गया जैसे इंसानों की तरह चमड़ी के जरिए हाई और नॉर्मल डोज, एरोसॉल और नसों के जरिए।

नसों के जरिए लगाया जाने वाला बीसीजी टीका
बीसीजी को नसों के जरिए लगाने की रिसर्च अमेरिका की नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ में काम कर रहे रॉबर्ट सेडर ने 2013 में एक खोज के जरिए की थी। रिसर्च के अनुसार मलेरिया के केस में लगाया गया टीका चमड़ी से ज्यादा नसों के जरिए लगाने पर फायदा पहुंचाता है।

अभी सेडर और उनके साथी जेनेटिकली मॉडिफाइड बीसीजी को जानवरों पर इस्तेमाल कर रहे हैं। इस साल इसके बेहतर रिजल्ट आने की उम्मीद है। अगर ये प्लान कामयाब रहता है तो इस पर आगे क्लिनिकल डेवलपमेंट के लिए सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया पुणे के साथ काम किया जाएगा। उम्मीद है कि 2021 तक तक बीसीजी के इंसान पर प्रयोग के नए शोध कारगर साबित होंगे।

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इस स्टडी के अन्य फायदे
इस स्टडी से इंसानों के इम्यून सिस्टम पर टीबी के टीके का असर पता चलेगा। अभी तो इसे आने में समय है। तब तक रिसर्च जारी है। जेएनयू के चेयर ऑफ मोलिक्यूलर मेडिसिन गोबरधन दास का कहना है कि जानवरों तक तो ये शोध सही है पर इंसानों को नसों के जरिए लगाने पर मुसीबतें बढ़ सकती हैं।

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