डायबिटीज में किडनी का भारी हो जाना और ठीक से काम न करना इस बीमारी से जुड़े ज्ञात तथ्यों में से एक है। लेकिन डायबिटीज किडनी की खुद को साफ करने की क्षमता को भी प्रभावित कर सकती है, यह हाल में मेडिकल कॉलेज ऑफ जॉर्जिया (ऑगस्टा यूनिवर्सिटी) के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन में पता चला है। यह महत्वपूर्ण जानकारी बीते महीने जर्नल ऑफ क्लिनिकल इनवेस्टिगेशन नामक मेडिकल जर्नल में प्रकाशित भी हुई है। इसमें अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिक डॉ. झेंग डोंग और उनके वैज्ञानिक साधियों ने अपनी रिपोर्ट में डायबिटीज होने पर किडनी को होने वाले इस नुकसान के बारे में बात की है।

  1. ऑटोफेजी प्रक्रिया होती ही धीमी

मेडिकल भाषा में किडनी के खुद को साफ करने की प्रक्रिया को ऑटोफेजी कहा जाता है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। शरीर में मलबे के रूप में अवशेष, जैसे मिसफोल्डेड प्रोटीन और माइटोकॉन्ड्रिया (क्षतिग्रस्त कोशिकाओं का विद्युतगृह), दोगुनी झिल्ली की परत के साथ पैक हो जाते हैं और फिर एंजाइम इन्हें खत्म कर देते हैं। इस प्रक्रिया के चलते मानव कोशिकाओं और अंगों को बेहतर काम करने में मदद मिलती है। डायबिटीज जैसी बीमारियां होने पर ऑटोफेजी का काम और बढ़ना चाहिए, लेकिन नए अध्ययन के तहत वैज्ञानिकों ने एनीमल और ह्यूमन दोनों प्रकार के मॉडल स्टडी में पाया है कि इस (डायबिटीज) दीर्घकालिक मेडिकल कंडीशन में ऑटोफेजी अलग-अलग चरणों में तेजी से कम होती है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस कारण किडनी की हालत और ज्यादा नाजुक हो जाती है।

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हालांकि इसी जानकारी के जरिये वैज्ञानिकों ने किडनी फेलियर को रोकने या उसकी गति को कम करने का रास्ता ढूंढने का भी दावा किया है। अध्ययन के लेखक और एमसीजी के रिसर्च एसोसिएट डॉ. झेंगवेई मा का मानना है कि डायबिटीज में ऑटोफेजी में कमी आने का पता लगाने के साथ उन्हें इस क्रॉनिक डिसीज कंडीशन को कम करने या रोकने का रास्ता भी निकाला है।

डायबिटीज और ऑटोफेजी को लेकर अध्ययनकर्ताओं के बीच बहस होती रही है। पिछली कुछ स्टडी में कहा गया है कि डायबिटीज होने पर किडनी खुद को और ज्यादा साफ करने लगती है, जबकि अन्य वैज्ञानिक इसके विपरीत दावा करते रहे हैं। डॉ. झेंग डोंग और उनके साथियों ने अब जाना है कि ये दोनों ही थ्योरी सही हैं। दरअसल, इन शोधकर्ताओं को अब जाकर पता चला है कि डायबिटीज होने पर शुरुआत में किडनी पर जो दबाव बनता है, उसके खिलाफ प्रतिक्रिया देते हुए ऑटोफेजी इंक्रीज होती है, लेकिन जैसे ही एक ट्यूमर सप्रेसर प्रोटीन (पी53) एक सूक्ष्म (माइक्रो) आरएनए (एमआईआर-214) को सक्रिय करता है तो किडनी से जुड़ी ऑटोफेजी तेजी से कम होने लगती है। पी53 और एमआईआर-214 मिलकर ऑटोफेजी के सबसे पहले जीन यूएलके1 को दबाने का काम करता है, जिसके फलस्वरूप किडनी की खुद को क्लीन करने की क्षमता प्रभावित होती है।

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शोधकर्ताओं ने बताया है कि किडनी को खुद को साफ करने की प्रक्रिया में माइक्रोआरएनए एमआईआर-214 की कोई खास भूमिका नहीं होती। एक्टिवेट होने पर यह आरएनए किडनी के नेचुरल क्लीनिंग प्रोसेस को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। परिणामस्वरूप, किडनी का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है। डायबिटीज के प्रभाव में पीड़ित व्यक्ति की कोशिकाएं और ऑर्गन अस्वस्थ तरीके से बढ़ने लगते हैं। इसे हाइपरट्रॉफी कहते हैं। इसमें किडनी क्षतिग्रस्त हो जाती है, उसमें इन्फ्लेमेशन होने लगती है और प्रोटीन बड़ी संख्या में निकलकर पेशाब में मिलना शुरू हो जाता है, जो किडनी फेलियर का साफ संकेत है। इस जानकारी पर डॉ. डोंग का कहना है, 'इससे हमें न सिर्फ इस कंडीशन के बारे में जानने में मदद मिली है, बल्कि हम यह भी जान पाए हैं कि आखिर किस कारण किसी बीमारी की हालत में ऐसा होता है।'

इस जानकारी के बाद वैज्ञानिकों ने ऑटोफेजी में होने वाली गिरावट को रोकने के लिए किडनी की फिल्टरिंग यूनिट्स से जुड़ी लंबी ट्यूबों की कोशिकाओं की मदद से एमआईआर-214 को दबाना शुरू किया। इन कोशिकाओं में कई प्रकार के महत्वपूर्ण कंपाउंड, जैसे प्रोटीन और अमीनो एसिड, को फिर से अवशोषित किया जाता है। अध्ययन के तहत एमआईआर-214 को सप्रेस करने से किडनी के यूएलके1 (वह ऑटोफेजी जीन, जिसे पी53 और एमआईआर-214 मिलकर सप्रेस करते हैं) और ऑटोफेजी में गिरावट नहीं आई। शोधकर्ताओं ने पाया कि ऐसा करने पर (डायबिटीज होने पर भी) किडनी की अनहेल्दी ओवरग्रोथ में कमी आई और वह बेहतर तरीके से काम करने लगी। इसके बाद वैज्ञानिकों ने एक काम और किया। उन्होंने पी53 को ब्लॉक कर दिया और देखा कि एमआईआर-214 का लेवल ऊपर नहीं गया और इसकी प्रक्रिया को ब्लॉक करने के फायदे भी पहले प्रयोग जैसे थे।

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डॉ. डोंग इस जानकारी को महत्वपूर्ण बताते हैं। उनका कहना है, 'डायबिटीज में होने वाली हाइपरट्रॉफी, सेल डेथ और इन्फ्लेमेशन के लिहाज से यह बहुत महत्वपूर्ण है। इन लक्षणों के चलते किडनी फेलियर की कंडीशन देखने को मिलती है। इस खतरे के साथ जी रहे लोगों को इससे काफी फायदा मिल सकता है। किडनी फेलियर का जो खतरा 10 से 12 साल में दिखता है, उसे हम धीमा करके 20 से 30 साल तक खींच सकते हैं या इसे होने से ही रोक दें।'

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