यूनाइटेड किंगडम के वैज्ञानिकों ने ब्रेस्ट कैंसर के कई ट्यूमर्स को आइडेंटिफाई करने और संबंधित इलाज में उनकी प्रतिक्रिया को जानने के लिए एक नया ब्लड टेस्ट तैयार किया है। इस टेस्ट से जुड़े रिसर्च के परिणाम बताते हैं कि यह परीक्षण न सिर्फ ब्रेस्ट कैंसर के ट्यूमर्स के सक्रिय रूप से शरीर में बढ़ने की पहचान करने में सक्षम है, बल्कि यह जानने में भी मददगार हो सकता है कि इस बीमारी के किसी पीड़ित के लिए सबसे अच्छा ट्रीटमेंट क्या हो सकता है। खबर के मुताबिक, ब्रेस्ट कैंसर से जुड़ी इस टेस्टिंग अप्रोच को एक नवीन रैपिड अटॉप्सी स्टडी के परिणामों के आधार पर तैयार किया गया है। इसमें पता चला है कि शरीर में अलग-अलग जगहों पर ब्रेस्ट कैंसर विशेष क्रम में फैलता है, जिसे कैंसर सेल्स द्वारा बनाए गए अधिकतर नए ट्यूमर्स के साथ ट्रेस किया जा सकता है। ये सभी कैंसर कोशिकाएं मूल ब्रेस्ट ट्यूमर की कोशिका से निकलती हैं। नए ब्लड टेस्ट को लेकर अभी और अध्ययन करने की आवश्यकता है। हालांकि इसे तैयार करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि यह इतना ज्यादा सेंसिटिव है कि इसे करते हुए मरीज के कैंसर की जेनेटिक रचना को पहले से जानने की आवश्यकता नहीं है।

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उल्लेखनीय है कि इस बारे में जानकारी तुलनात्मक रूप से कम है कि ब्रेस्ट कैंसर क्यों और कैसे फैलता है और इसका इलाज किस तरह किया जा सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि मेटास्टेटिक स्टेज (जब कैंसर दूसरे अंगों में फैलना शुरू होता है) में कैंसर कई जगहों पर फैल सकता है, मसलन दिमाग, लिवर और हड्डी। ऐसे में बीमारी के विश्लेषण और शोध के लिए वैज्ञानिकों और डॉक्टरों के लिए मरीज का सैंपल लेना काफी चुनौतीपूर्ण और कष्टदायक हो जाता है।

नए अध्ययन में मेटास्टेटिक ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित दो महिलाओं के कैंसर टीशू पर शोध किया गया है। इस काम के लिए लंदन की रहने वाली इन दोनों महिलाओं के मरने के कुछ ही देर बाद उनके कैंसर ऊतक दान कर दिए गए थे। इससे शोधकर्ता मेटास्टेटिक ब्रेस्ट कैंसर ट्यूमर को बॉडी से अलग कर उनका विश्लेषण करने में कामयाब रहे। साथ ही इन ट्यूमर्स से ब्लड सैंपल और बायोप्सी सैंपल भी लिए गए। इसके अलावा सभी लिम्फ नोड भी निकाल दिए गए थे। इन सेकेंडरी (मेटास्टेटिक) ब्रेस्ट कैंसर सेल्स के मुख्य मॉलिक्यूल्स की जांच की गई। इसमें डीएनए सैंपल की जांच भी शामिल थी, जिसमें यह जानने की कोशिश की गई कि बीमारी के दौरान कैंसर सेल्स में किस प्रकार के बदलाव आए थे।

अध्ययन के लिए टीशू दान करने वाले एक महिला की मौत ब्रेस्ट कैंसर के डायग्नॉसिस के 21 महीनों बाद हो गई थी। इसका मतलब था कि जब 51 वर्षीय इस महिला की बीमारी का पता चला, तब तक कैंसर शरीर के दूसरे हिस्सों में भी फैल चुका था। वहीं, दूसरी महिला के गर्भावस्था के दौरान ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित होने का पता चला था। बच्चे को जन्म देने तक कैंसर इस 35 वर्षीय इस महिला की हड्डियों और फेफड़ों तक पहुंच गया था। डाग्नॉसिस के 53 महीनों के बाद उसकी भी मौत हो गई।

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शोध के परिणामों के मुताबिक, पहली महिला के सैंपल से मिले 12 कैंसर ट्यूमर्स में से दस ब्रेस्ट में बने सबसे पहले ट्यूमर के चलते विकसित हुई मूल (सबसे पहली) कैंसर सेल से ही विकसित हुए थे। इस मरीज में मेटास्टेटिक कैंसर सबसे पहले उसके फेफड़े में फैला, जहां एक नया ट्यूमर पैदा हुआ और समय के साथ बढ़ता गया। फिर उससे बनी नई कैंसर सेल्स से नए ट्यूमर वजूद में आए जो लिवर और अंडाशय में पैदा हुए। लिवर में बना ट्यूमर अंडाशय में फैलने के बाद डायाफ्राम में पहुंच गया। वहीं, अंडाशय में बने ट्यूमर ने स्वयं से ही लिवर में एक दूसरा ट्यूमर बना दिया। इसे मोनोक्लोनल सीडिंग कहते हैं। कुल-मिलाकर यह पाया गया कि मोनोक्लोनल सीडिंग के जरिये ब्रेस्ट कैंसर मरीज के शरीर में फैला था। इस आधार पर शोधकर्ताओं ने बताया है कि अगर ब्रेस्ट कैंसर के फैलने में मोनोक्लोनल सीडिंग की भूमिका अहम है तो इस बीमारी को पहले लगाए गए अनुमानों से कहीं बेहतर तरीके से ट्रैक किया जा सकता है।

इस जानकारी के साथ शोधकर्ताओं ने कैंसर डीएनए को ट्रैक करने के लिए एक नए प्रकार का ब्लड टेस्ट विकसित करना शुरू किया ताकि पता चल सके मेटास्टेटिक या सेकेंडरी ब्रेस्ट कैंसर शरीर में कैसे फैलता है। अध्ययन के मुताबिक, समय के साथ सक्रिय रूप से बढ़ने वाले कैंसर सेल्स एकत्रित मॉलिक्यूलर संकेतकों को मल्टीप्लाई करते हैं और अलग-अलग पैटर्न में दिखाई देते हैं। शोधकर्ताओं ने जाना है कि खून में कैंसर डीएनए के टुकड़ों का विश्लेषण करके कैंसर सेल्स के 'मॉलिक्यूलर क्लॉक' का पता लगाया जा सकता है। इसकी मदद से यह जाना जा सकता है कि कैंसर कोशिकाएं समय के साथ कितनी बार मल्टीप्लाई हुई हैं।

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इन ट्रेसेबल मॉलिक्यूलर क्लॉक का विश्लेषण कर और ट्यूमर्स के साथ ब्लड टेस्ट की तुलना करने पर परीक्षण ने कैंसर कोशिकाओं का एक फैमिली ट्री (वंश वृक्ष) तैयार किया। वहीं, खून में कैंसर सेल डीएनए के स्तर से यह मालूम हुआ कि पहली मरीज में कौन से सेकेंडरी ट्यूमर्स सबसे ज्यादा एक्टिव थे। हालंकि दूसरी कैंसर मरीज के कैंसर सेल्स जिस तरह अपने डीएनए में मॉलिक्यूलर मार्क जोड़ रहे थे, उसमें डिफेक्ट होने का पता चला है। इसीलिए वैज्ञानिकों ने इस विषय पर आगे और अध्ययन करने की बात कही है ताकि समझा जा सके कि नए ब्लड टेस्ट के क्लिनिकल इस्तेमाल में इस तरह की चुनौतियां किस रूप में सामने आ सकती हैं। 

हालांकि परिणामों से उत्साहित वैज्ञानिकों ने कहा है कि नए ब्लड टेस्ट को मेटास्टेटिक ट्यूमर को ट्रैक करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। साथ ही, इलाज (कीमोथेरेपी, इम्यूनोथेरेपी, रेडियोथेरेपी समेत) के दौरान उनके रेस्पॉन्स की निगरानी के लिए भी उपयोग किया जा सकता है। वहीं, आगे की संभावनाओं को लेकर कहा गया है कि इस टेस्ट को ब्रेस्ट कैंसर को शुरुआत में ही डिटेक्ट करने के साथ-साथ दूसरे प्रकार के कैंसरों के इलाज और रोकथाम के लिए भी प्रयोग में लाया जा सकता है।

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