किसी व्यक्ति के शरीर में नए कोरोना वायरस को रोकने वाले एंटीबॉडी मिलने का मतलब है कि वह पहले इस वायरस की चपेट में आ चुका है। लेकिन एंटीबॉडी बनने का मतलब यह नहीं है कि इनसे हर संक्रमित व्यक्ति को आगे के लिए इस वायरस से सुरक्षा मिल जाएगी। हाल में एंटीबॉडी को लेकर छिड़ी बहस पर वैज्ञानिकों ने यह बात कही है। उन्होंने कहा है कि केवल यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वायरस के खिलाफ एंटीबॉडी पैदा हुए हैं या नहीं, बल्कि यह भी जानना जरूरी है कि संक्रमण के खिलाफ पैदा हुए ये रोग प्रतिरोधक आखिर किस प्रकार के हैं, शरीर में उनकी मात्रा कितनी है और वे कितने समय तक बने रहते हैं।

इन अहम सवालों के बीच कोविड-19 से जुड़े एंटीबॉडी को लेकर आए दिन कोई न कोई नया अध्ययन बहस का विषय बन जाता है। अलग-अलग परिस्थितियों, मरीजों आदि पर आधारित इन अध्ययनों में कभी दावा किया जाता है कि कोरोना वायरस के एंटीबॉडी ज्यादा समय तक नहीं रहते, अगर रहते हैं तो उनमें वायरस को खत्म करने की क्षमता संदेहपूर्ण हो सकती है या एंटीबॉडी न सिर्फ ज्यादा समय तक बने रहे सकते हैं, बल्कि रीइन्फेक्शन के खिलाफ सुरक्षा भी देते हैं आदि-इत्यादि। तमाम दावों के बीच अभी तक कुछ भी निष्कर्षपूर्ण निकल कर नहीं आया है। ऐसे में जानकारों और अनुभवी विशेषज्ञों की राय को मानकर चलना उचित माना जाता है। इस लिहाज से अभी तक केवल एक बाद सुनिश्चित होकर कही जाती है कि शरीर में एंटीबॉडी मिलने का मतलब यह है कि पीड़ित व्यक्ति नए कोरोना वायरस से संक्रमित होकर उसे एक बार मात दे चुका है।

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इस मुद्दे पर समाचार एजेंसी पीटीआई ने कुछ विशेषज्ञों से बात की। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यूनोलॉजी के वैज्ञानिक सत्यजीत रथ कहते हैं कि वे एंटीबॉडी के विषय में अभी और इंतजार करना उचित समझते हैं। सत्यजीत का कहना है कि अभी यह देखना चाहिए कि इस विषय से जुड़े साक्ष्य आगे किस ओर जाते हैं। उनका मानना है कि शरीर में एंटीबॉडी की मौजूदगी से मरीजों में बीमारी के फैलने को लेकर कोई जानकारी नहीं मिलती है।

वहीं, पुणे स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, एजुकेशन एंड रिसर्च की विज्ञानी विनीता बाल कहती हैं, 'कुछ एंटीबॉडी न्यूट्रलाइजिंग (एनएबीएस) होते हैं और कुछ मामूली एंटीबॉडी होते हैं। एनएबीएस नए कोरोना वायरस को कोशिका में घुसने से रोक सकते हैं। साधारण एंटीबॉडी वायरल के खिलाफ रेस्पॉन्स का संकेत जरूर हैं, लेकिन वायरस को आगे भी रोकने के लिए ये कारगर नहीं होते हैं। ऐसे एंटीबॉडीज की मौजूदगी सार्स-सीओवी-2 की चपेट में आने का साफ संकेत होते हैं, लेकिन ये इसकी गारंटी नहीं देते कि एनएबीएस की गैर-मौजूदगी में ये बीमारी से सुरक्षा भी देंगे।' वहीं, एनएबीएस को लेकर डॉ. विनीता यह भी कहा कि पब्लिक हेल्थ के लिहाज से अभी तक इस बात पर कोई सहमति नहीं है कि इस तरह के एंटीबॉडी का कौन सा स्तर 'रक्षात्मक' है।

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एंटीबॉडी पर बात करते हुए ये वैज्ञानिक सेरोलॉजिकल सर्वे पर भी सवाल उठाते हैं। इनका कहना है कि इस तरह के सर्वेक्षणों में केवल यह पता चलता है कि लोग वायरस की चपेट में आए या नहीं। यह जानकारी नहीं मिल पाती कि जो लोग संक्रमित होकर ठीक हुए, उनमें एंटीबॉडी किस स्तर के साथ विकसित हुए। यानी सेरो सर्वे के परिणाम केवल इस बात तक सीमित हैं कि जितने लोगों के ब्लड सैंपल लिए गए, उनमें से कितने कोरोना वायरस की चपेट में आए और संक्रमण के खिलाफ एंटीबॉडी विकसित कर पाए। यह पता नहीं चल पाता कि अगर वे दूसरी बार वायरस के संपर्क में आएं तो क्या उससे बचाने के लिए शरीर में पर्याप्त एंटीबॉडी हैं या नहीं। इस संबंध में हाल के समय तक यह कहा जाता रहा कि एक बार वायरस को मात देने के बाद उससे दोबारा संक्रमित होने की संभावना नहीं होती, क्योंकि पहली बार संक्रमित होने पर जो एंटीबॉडी शरीर में पैदा हुए वे आगे भी वायरस से सुरक्षा प्रदान करते हैं। लेकिन हाल में हांगकांग, यूरोप और अमेरिका समेत भारत में कोविड रीइन्फेक्शन के मामलों ने सामने आकर इस थ्योरी पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

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