भारत में कोविड-19 महामारी के खत्म होने के आसार दूर-दूर तक नहीं हैं। इस बीमारी के चलते यहां बहुत बड़ी संख्या में लोग बीमार पड़े सकते हैं और उनकी मौत हो सकती है। दुनिया की प्रतिष्ठित मेडिकल पत्रिकाओं में से एक दि लांसेट ने अपने एक नए लेख में ये बाते कही हैं। 'कोविड-19 इन इंडिया: दि डेंजर्स ऑफ फॉल्स ऑप्टिमिज्म' (भारत में कोविड-19: फर्जी आशावाद के खतरे) टाइटल के साथ लिखे गए इस आर्टिकल में उसने कहा है कि हालांकि भारत ने कोरोना वायरस महामारी के खिलाफ मजबूत प्रतिक्रिया दी है, लेकिन इसके बावजदू यहां कोविड-19 के फैलने की दर दुनिया में सबसे ज्यादा है। लांसेट ने भारत में कोरोना संक्रमण के मामले बढ़ने के पीछे लॉकडाउन में लगातार दी गई ढील का जिक्र किया है। साथ ही महामारी से जुड़े तमाम पहलुओं (आंकड़े, नियंत्रण योजनाएं आदि) को लेकर सरकार के रवैये पर भी सवाल उठाए हैं। लेख में पत्रिका ने कहा है, 'जून में (लॉकडाउन से जुड़ी) पाबंदियों को हटाना शुरू किया गया था और यह राहत राष्ट्रीय स्तर पर (कोरोना) मामलों में हो रही नाटकीय बढ़ोतरी के बाद भी जारी है।' मेडिकल जर्नल ने साफ कहा है कि भारत स्पष्ट रूप से एक खतरनाक दौर से गुजर रहा है।
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लेख में कोरोना वायरस के नियंत्रण और रोकथाम के लिए उठाए गए कदमों पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, 'भारत ने कई मायनों में अच्छा रेस्पॉन्स दिया है। उसने मार्च महीने में राष्ट्रीय लॉकडाउन की घोषणा की, जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सराहा था। इस दौरान कई प्रकार के कदम उठाए गए। वेंटिलेटर्स जैसे विशेष इक्वपमेंट का इंतजाम किया गया, टेस्टिंग के आंकड़ों में बढ़ोतरी हुई। भारत उन पहले देशों में शामिल रहा जिन्होंने पूल टेस्टिंग की शुरुआत की थी। वैक्सीन मैन्युफैक्चरिंग के प्रयासों में भी भारत आगे रहा है।' लेख में आगे लिखा है, '(लेकिन) समस्याएं फिर भी बनी रहीं। लॉकडाउन की वजह से कोविड-19 संकट के समानांतर एक और संकट खड़ा हो गया। लोगों की आय नाटकीय रूप से कम हो गई, भुखमरी बढ़ गई और कई प्रवासी कामगारों को अपने घरों तक पैदल जाना पड़ा। यह स्वास्थ्य संकट शहरों से निकल कर छोटे नगरों और गांवों तक पहुंचा तो पहले से मौजूद स्वास्थ्य क्षेत्र की असमानताएं साफ तौर पर दिखाई देने लगीं। ग्रामीण भारत का स्वास्थ्यगत ढांचा बहुत कमजोर है। यहां के कुछ निजी अस्पतालों में भी सुविधाओं की कमी है, विशेषकर ऑक्सीजन की।'
लांसेट ने कहा है कि हर रोज बढ़ते मामलों के बावजूद भारत में कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए जरूरी पाबंदियों में ढील दी जा रही है। पत्रिका ने कहा है, 'इससे झूठी उम्मीद के साथ ऐसा माहौल पैदा हो रहा है कि लोगों ने खुद को भाग्य के भरोसे छोड़ना शुरू कर दिया है। इससे मास्क पहनने और फिजिकल डिस्टेंसिंग जैसे प्रभावशाली नॉन-फार्मास्यूटिकल उपाय कमजोर हो रहे हैं।' इसके बाद पत्रिका ने कहा, 'भारत में यह महामारी खत्म होने से बहुत दूर है। अगर पब्लिक हेल्थ से जुड़े कदम न उठाए गए और उनका पालन नहीं किया गया तो यहां संभावित रूप से बहुत बड़ी संख्या में मरीज और मौतें देखने को मिल सकते हैं। लोगों के सामने कोविड-19 के खतरों को साफ और ईमानदारी के साथ रखने बिना महामारी को काबू में करना असंभव होगा।'
लेख में भारत की मौजूदा केंद्र सरकार की भूमिका को लेकर भी टिप्पणी की गई है। इसमें लिखा है, 'ऐसी न्यूज रिपोर्टें हैं, जो बताती हैं कि लॉकडाउन की घोषणा से कुछ घंटे पहले सरकार ने देश के सबसे बड़े मीडिया संस्थानों से कहा कि वे निराशावाद, नकारात्मकता और अफवाह आधारित खबरों पर काबू करें। ऐसा लगता है नकारात्मक खबरों को अनदेखा करने और आश्वासन देने के दबाव को भारत के कई पेशेवर वैज्ञानिक संगठनों ने महसूस किया है। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) को वैज्ञानिक साक्ष्य (की अवधारणा) से भटकने के चलते विशेषज्ञों द्वारा अलग कर दिया गया है। इसके महानिदेशक बलराम भार्गव एक पत्र में कोरोना वायरस वैक्सीन को 15 अगस्त (ऐसी समयसीमा जिसे ज्यादातर मेडिकल एक्सपर्ट ने असंभव बताया) के दिन लॉन्च करने की बात कहते हैं, पर्याप्त साक्ष्य नहीं होने के बावजूद आईसीएमआर ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के इस्तेमाल का समर्थन किया और कुछ न्यूज रिपोर्टों में दावा किया गया कि कोरोना वायरस संक्रमण से जुड़े डेटा को उसके एक वैज्ञानिक शोधपत्र से हटा लिया गया।'
इसके अलावा कोविड-19 से हुई मौतों से जुड़े आंकड़ों की पारदर्शिता को लेकर भी लांसेट ने टिप्पणी की है। इसमें कहा गया है, 'एक हालिया वर्ल्ड रिपोर्ट में (भारत में) कोविड-19 से जुड़े मामलों और मौतों की पारदर्शिता भी सवालों के घेरे में है, विशेषकर केस फटैलिटी रेट को लेकर, जिस पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। भारत सरकार का कहना है कि यहां केस फटैलिटी रेट 1.8 प्रतिशत है, जो कई देशों से काफी कम है। लेकिन यह जानना कठिन है कि क्या (वाकई में) आंकड़े तुलना योग्य हैं।' लांसेट ने कहा है कि महामारी में सफलता का दावा करना बहुत महत्वपूर्ण होता है, लेकिन भारत में जिस तरह हालात को पॉजिटिविटी के साथ पेश किया जा रहा है, उससे न सिर्फ हकीकत को छिपाया जाता है, बल्कि पब्लिक हेल्थ को लेकर उठाए कदमों को भी नुकसान पहुंचता है। इसके साथ ही भारत के राजनीतिक नेतृत्व को लेकर मेडिकल जर्नल ने कहा है कि इस तरह को रवैये को छोड़कर वह वैज्ञानिक साक्ष्य पर चले, विशेषज्ञों की सलाह माने और अकादमिक स्वतंत्रता का सम्मान करे, न कि फर्जी आशावाद (या झूठी उम्मीद) को फैलाने का काम करे।