कोविड-19 महामारी के खिलाफ चल रहे वैश्विक संघर्ष में जिन समस्याओं ने इस लड़ाई में बार-बार दिक्कतें पैदा की हैं, उनमें से एक है 'फॉल्स नेगेटिव' टेस्टिंग परिणाम। साधारण भाषा में कहें तो फॉल्स नेगेटिव का मतलब है कोरोना वायरस से संक्रमित किसी व्यक्ति को गलती से वायरस मुक्त बता देना। कोविड-19 टेस्ट का परिणाम फॉल्स नेगेटिव आने का नतीजा यह होता है कि संक्रमित व्यक्ति का इलाज नहीं हो पाता और वह दूसरों के संपर्क में आकर वायरस को आगे बढ़ाने का काम करता है। लेकिन फॉल्स नेगेटिव कोरोना संकट की रोकथाम के रास्ते में अकेली समस्या नहीं है। कई जानकार बताते हैं कि इस टेस्टिंग परिणाम का विपरीत टेस्टिंग रिजल्ट यानी 'फॉल्स पॉजिटिव' भी मरीजों से लेकर डॉक्टरों, स्वास्थ्य अधिकारियों और सरकारों के लिए अलग-अलग प्रकार की समस्याएं खड़ी करता है।

तुलना करने पर फॉल्स पॉजिटिव, फॉल्स नेगेटिव की अपेक्षा कम नुकसानदायक लगता है। लेकिन मेडिकल विशेषज्ञों का कहना है कि अगर कोई व्यक्ति वायरस से संक्रमित नहीं है, लेकिन टेस्ट में वह गलती से पॉजिटिव आ जाए तो इससे कोरोना संकट के खिलाफ कई प्रकार की समस्याएं खड़ी हो सकती हैं और लोग भी प्रभावित हो सकते हैं। शीर्ष अमेरिकी ड्रग एजेंसी एफडीए का कहना है कि संक्रामक रोगों से जुड़े परीक्षणों में फॉल्स पॉजिटिव परिणाम आना दुर्लभ है, लेकिन किसी प्रकार के गलत सम्मिश्रण, गलत निर्वहण (मिसहैंडलिंग) या तकनीकी खामियों के चलते यह संभव है कि टेस्टिंग डिवाइस कोरोना वायरस को उस जगह पर डिटेक्ट दिखा दे, जहां वह है ही नहीं। जानते हैं कि इस गलत परिणाम के क्या नतीजे हो सकते हैं।

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गैरजरूरी आइसोलेशन
अमेरिकी की शीर्ष स्वास्थ्य एजेंसी सीडीसी समेत दुनियाभर के देशों के सर्वोच्च मेडिकल संस्थानों या स्वास्थ्य नियामकों ने अपनी-अपनी गाइडलाइनों के तहत कहा है कि कोविड-19 टेस्ट पॉजिटिव आने के साथ ही व्यक्ति को तुरंत आइसोलेशन में चले जाना चाहिए। आइसोलेशन की यह अवधि हर देश में अलग-अलग हैं। मिसाल के लिए अमेरिका में कोरोना पॉजिटिव मरीज को लक्षण दिखने पर कम से कम दस दिनों के लिए आइसोलेशन में जाना होता है। भारत में भी यह अवधि दस दिन है और बुखार नहीं होने पर तीन दिन है। यह स्थिति उन लोगों के लिए अनुकूल हो सकती है, जिनके दैनिक कार्य आइसोलेशन में जाने से प्रभावित नहीं होते, जैसे नौकरी। लेकिन जिन लोगों के काम किसी से मिले बिना नहीं हो सकते या जिनके पास पैसे की कमी है और उन्हें काम करने के लिए बाहर जाना ही होता है, उनके लिए आइसोलेशन एक बड़ी समस्या हो सकता है। वे अपना वेतन और नौकरी दोनों खो सकते हैं। ऐसे में पता चले कि आइसोलेशन में गए व्यक्ति को कोरोना संक्रमण था ही नहीं तो यह बात अपनेआप में एक तनावपूर्ण बन जाती है। वह वायरस से ग्रस्त नहीं है, फिर भी उसके परिवार को छोटे से घर में उसके लिए जगह निकालनी पड़ सकती है। वहीं, अगर वह अस्पताल में आइसोलेट हुआ है तो वहां उसके इलाज में लगाए गए तमाम प्रयास व्यर्थ हो जाते हैं।

नए संकट को देगा जन्म
कोरोना टेस्ट का परिणाम फॉल्स पॉजिटिव होने पर स्वस्थ व्यक्ति को ऐसी जगह भर्ती होना पड़ सकता है, जहां कोविड-19 के वास्तविक मरीज पहले से मौजूद हों। भीड़भाड़ वाले स्वास्थ्य केंद्रों - जैसे नर्सिंग होम, जेल या हॉस्पिटल - में सभी कोरोना पॉजिटिव लोगों को एक साथ आइसोलेट किया जा सकता है। इससे फॉल्स पॉजिटिव के कारण भर्ती हुआ स्वस्थ व्यक्ति भी वायरस की चपेट में आ सकता है। अमेरिका के नवादा राज्य में ऐसा हो चुका है। यहां इस महीने की शुरुआत में नर्सिंग होम्स को दो रैपिड कोरोना वायरस टेस्टों का इस्तेमाल बंद करने को कहा गया था। इन परीक्षणों के सटीक परिणाम देने की क्षमता पर सवाल खड़े किए गए थे। दरअसल इन टेस्टों के परिणाम में फॉल्स पॉजिटिव के कई मामले सामने आए थे। गलत रिजल्ट आने के चलते सामान्य स्वास्थ्य वाले लोगों को भी संक्रमित लोगों के साथ एक ही मेडिकल यूनिट में रख दिया गया था। इससे वायरस के और फैलने की संभावना बढ़ गई थी। अधिकारियों का मानना है कि इस तरह तो आबादी के उस हिस्से को नुकसान पहुंच सकता है, जिसे बचाने के लिए तमाम प्रयास किए गए हैं।

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गलत या अनुपयुक्त इलाज
फॉल्स नेगेटिव कोविड-19 के उचित इलाज को सही व्यक्ति को मिलने से रोक सकता है। गलत टेस्टिंग परिणाम आने से डॉक्टर उस व्यक्ति को ठीक करने में लग जाते हैं, जिसे उसकी जरूरत ही नहीं है। मिसाल के लिए फ्लू और कोविड-19 के लक्षण काफी मिलते-जुलते हैं। लेकिन एक समय में एक ही बीमारी का परीक्षण हो सकता है। अगर फ्लू से पीड़ित मरीज का पहले कोविड-19 टेस्ट हो जाए और वह गलती से फॉल्स पॉजिटिव निकले तो उसे उपयुक्त या सही इलाज से वंचित होना पड़ सकता है। यह उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक और जानलेवा हो सकता है। यह भी हो सकता है कि मरीज को गैरजरूरी महंगी थेरेपी से गुजरना पड़े, जिससे असल बीमारी से उनकी रिकवरी नहीं हो पाएगी और अस्पताल का खर्चा अलग बढ़ेगा।

इम्यूनिटी को लेकर गलत धारणा
तमाम मेडिकल विशेषज्ञ और शोधकर्ता अध्ययनों के आधार पर कहते रहे हैं कि कोरोना वायरस से एक बार संक्रमित होने वाला व्यक्ति इसके खिलाफ विकसित की इम्यूनिटी से वायरस को दूसरी बार आने से रोक सकता है। सीडीसी की गाइडलाइंस कहती हैं कि एक बार संक्रमण से ठीक होने के बाद कम से कम 90 दिनों तक रीइन्फेक्शन की संभावना नहीं होती। यह बात उन लोगों के लिए अच्छी खबर हो सकती है, जो वास्तव में सार्स-सीओवी-2 की चपेट में आए हों। लेकिन फॉल्स नेगेटिव वालों के लिए यह घातक हो सकता है, क्योंकि गलत परिणाम के चलते वे यही समझेंगे कि वे संक्रमण से उबर कर ठीक हो चुके हैं, लिहाजा अब कम से कम 90 दिनों तक उन्हें चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। ऐसे में उनका ट्रांसमिशन को लेकर लापरवाह होना स्वाभाविक है, जबकि वे पहले की ही तरह वायरस के खतरे में होंगे।

अनावश्यक तनाव
कोविड-19 टेस्ट में फॉल्स पॉजिटिव परिणाम आने से व्यक्ति गैरजरूरी तनाव में आ जाता है। वह वायरस से संक्रमित नहीं है, फिर भी गलत टेस्ट रिजल्ट की वजह से खुद को बीमार महसूस करता है। चूंकि इसका भावनात्मक पहलू भी है, इसलिए फॉल्स पॉजिटिव व्यक्ति का परेशान होकर तनाव में आ जाना लाजमी सी बात है। ऐसा इसलिए क्योंकि डॉक्टर के यह बताने पर कि कोई व्यक्ति कोविड-19 से ग्रस्त है, जहन में सबसे पहला ख्याल यही आता है कि वह मर भी सकता है। अमेरिका में कोरोना टेस्ट से जुड़ी मुहिम का नेतृत्व कर रहे एक शोधकर्ता और वैज्ञानिक रूथ कैज बताते हैं कि फॉल्स पॉजिटिव परिणाम लोगों को अतिरिक्त मानसिक व्यथा में डाल देते हैं।

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टेस्टिंग के प्रति विश्वास की कमी
इन तमाम नकारात्मक प्रभावों के अलावा फॉल्स पॉजिटिव का सबसे बड़ा जोखिम यह है कि इनसे टेस्टिंग के प्रति लोगों का विश्वास घटता है। जानकार कहते हैं कि परीक्षणों के परिणामों में बार-बार और बड़े डायग्नॉस्टिक एरर होने से आम लोगों में टेस्टिंग के प्रति निराशा पैदा होती है। इसके चलते यह भी हो सकता है कि वे टेस्ट करवाना ही बंद कर दें। जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के डॉ. बेंजामिन मेजर तो यहां तक कहते हैं कि कोविड-19 से जुड़े फॉल्स पॉजिटिव रिजल्ट अन्य प्रकार के मेडिकल परीक्षणों को लेकर भी लोगों में शंका पैदा करने का काम कर सकते हैं। वे कहते हैं कि हो सकता है इससे लोग आगे से टेस्ट कराने में हिचकें। उनका कहना है, 'तेजी के साथ और ज्यादा टेस्ट करने की जरूरत है, लेकिन अगर लोगों में इन्हें कराने की इच्छा की कमी हो जाए तो टेस्टिंग करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है। इसके दूरगामी परिणाम देखने को मिल सकते हैं।'


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