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गुजरात के अहमदाबाद में इन विट्रो फर्टिलाइजेशन (आईवीएफ) तकनीक से पैदा हुई एक बच्ची के बोन मैरो से उसके छह साल के भाई को थैलेसीमिया से बचाने में कामयाबी मिली है। इस बच्ची की उम्र मात्र एक साल है। समाचार एजेंसी पीटीआई के मुताबिक, बच्ची के माता-पिता ने थैलेसीमिया से पीड़ित उसके भाई को बोन मैरो ट्रांसप्लांट की मदद से ठीक करने के उद्देश्य से आईवीएफ तकनीक के जरिये उसे जन्म दिया था। एजेंसी का कहना है कि इस तरह के कॉन्सेप्ट को 'सेवियर सिबलिंग' कहते हैं। इस केस में बच्ची का बोन मैरो उसके भाई में ट्रांसप्लांट करने वाले डॉक्टरों ने बताया है कि मार्च में हुई यह प्रक्रिया सफलतापूर्वक पूरी हो गई है और बच्ची का भाई अब थैलेसीमिया के खतरे से मुक्त हो गया है। थैलेसीमिया एक ब्लड डिसऑर्डर है, जिसमें मरीज को जिंदा रहने के लिए हर महीने ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराने की जरूरत पड़ती है। इसके बाद भी मरीज का जीवनकाल छोटा रहने का खतरा बना रहता है।

खबर के मुताबिक, अहमदाबाद के इस परिवार के दूसरे बच्चे (बेटा) को इस बीमारी और इससे जुड़ी समस्याओं से जूझना पड़ रहा था। ऐसे में पीड़ित के माता-पिता को सलाह दी गई थी कि वे अपने बेटे के इलाज के लिए अंतिम उपाय के रूप में उसका बोन मैरो ट्रांसप्लांट करवाएं। परिवार ने इस पर अमल किया। लेकिन इसके लिए उन्हें आवश्यक एचएलए यानी ह्यूमन ल्यूकोसाइट एंटीजन नहीं मिला, जो बच्चे के एचएलए से मैच खाता हो। ऐसे में अभिभावकों ने आईवीएफ तकनीक का सहारा लिया ताकि उससे पैदा हुई संतान से मैचिंग एचएलए मिल सके। चाइल्ट कंसीविंग के जरिये इस प्रकार की एचएलए टाइपिंग एक जाना-माना मेथड है। इसकी मदद से पैदा होने वाले बच्चे के कॉर्ड ब्लड या हेमेटॉपोएटिक स्टेम सेल्स को किसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे उसके भाई-बहन को बचाने के लिए ट्रांसप्लांट के लिए डोनेट किया जा सकता है।

पीटीआई ने बताया कि जब थैलेसीमिया से पीड़ित बेटे से पिता का बोन मैरो मैच नहीं हुआ तो वे डॉक्टरों के पास पहुंचे। उन्होंने उन्हें किसी एचएलए-आइडेंटिकल डोनर के बोन मैरो से बेटे का ट्रांसप्लांट कराने की सलाह दी। यह एक मुश्किल काम था, लेकिन डॉक्टर बताते हैं कि उन्होंने और परिवार ने इस चुनौती को स्वीकार किया। इसके लिए परिवार ने बेटे को बचाने के लिए उसका एक सिबलिंग पैदा करने का फैसला किया। इसके लिए आईवीएफ तकनीक की मदद ली गई, जिससे पैदा हुई बेटी के मैचिंग बोन मैरो से उसके बड़े भाई की जान बचाई गई है।  

ट्रांसप्लांट के लिए बच्ची का एक विशेष वजन के साथ स्वस्थ होना जरूरी था। डॉक्टरों ने बताया कि एक बार सही उम्र और वजन होने के बाद उन्होंने बोन मैरो ट्रांसप्लांट करने का फैसला लिया, जो सफल रहा। उन्होंने बताया, 'लड़का अब खतरे में नहीं है और उसे ब्लड ट्रांसफ्यूजन की आवश्यकता नहीं है। यह भारत में अपनी तरह का पहला केस है, जिसमें आईवीएफ तकनीक से पैदा हुई बच्चे के मैचिंग एचएलए से थैलेसीमिया-मेजर से पीड़ित उसके सिबलिंग को बचाने में कामयाबी मिली है।'

क्या है बोन मैरो ट्रांसप्लांट?
बोन मैरो या अस्थि मज्जा कुछ हड्डियों के बीच पाया जाने वाला एक पदार्थ है, जिसमें स्टेम सेल होते हैं। बोने मैरो ट्रांसप्लांट में किसी बीमारी या दुर्घटना के कारण क्षतिग्रस्त या नष्ट हुई स्टेम कोशिकाओं को अस्थि मज्जा में पाए जाने वाली स्टेम से बदला जाता है। शरीर को कई संक्रामक बीमारियों से बचाने वाली लाल रक्त कोशिकाओं, श्वेत रक्त कोशिकाओं और चोट के बाद रक्त को जमाने में मदद करने वाली प्लेटलेट का निर्माण बोन मैरो की स्टेम सेल ही करती हैं। थैलेसीमिया के अलावा ब्लड कैंसर और अप्लास्टिक एनीमिया जैसी गंभीर मेडिकल कंडीशन में भी बोन मैरो ट्रांसप्लांट करवाने की सलाह दी जाती है। यह उल्लेखनीय है कि एड्स बीमारी के इतिहास में आजतक केवल दो मरीजों को बोन मैरो ट्रांसप्लांट की मदद से ही ठीक करने में कामयाबी मिली है। इस प्रक्रिया में किसी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर से हेल्दी स्टेस सेल्स ली जाती हैं। ट्रांसप्लांट से पहले उन्हें फिल्टर किया जाता है। बताया जाता है कि कूल्हे और रीढ़ की हड्डी में बोन मैरो कोशिकाएं अधिक मात्रा में पाई जाती हैं। हालांकि ट्रांसप्लांट में 90 प्रतिशत कोशिकाएं स्टेम सेल में संचारित हो रहे रक्त में से ही ली जाती हैं। प्रोसेस पूरा होने के बाद ट्रांसप्लांट कोशिकाएं बढ़ने लगती हैं और नए स्वस्थ बोन मैरो में बदल जाती हैं।

थैलेसीमिया क्या होता है?
यह रक्त से जुड़ी एक आनुवंशिक बीमारी है, जिसमें शरीर खून में मौजूद हीमोग्लोबिन का पर्याप्त मात्रा में निर्माण नहीं कर पाता। हीमोग्लोबिन एक प्रकार का प्रोटीन है। यह लाल रक्त कोशिकाओं का एक अहम हिस्सा है। इसकी कमी होने पर लाल रक्त कोशिकाएं ठीक से काम नहीं करतीं। उनका जीवनकाल छोटा हो जाता है। इसके चलते खून में हेल्दी रेड ब्लड सेल्स की कमी हो जाती है। चूंकि हीमोग्लोबिन प्रोटीन कण के रूप में इन कोशिकाओं के जरिये शरीर की हरेक सेल तक ऑक्सीजन पहुंचाने का काम करता है, इसलिए रेड ब्लड सेल्स की कमी होने पर ऑक्सीजन हरेक सेल तक नहीं पहुंच पाती या पर्याप्त रूप से नहीं पहुंचती। ऐसे में मरीज को थकान, कमजोरी और सांस लेने में दिक्कत जैसी समस्याएं होने लगती हैं। इस स्थिति के एनीमिया कहते हैं, जो थैलेसीमिया के मरीजों में हल्के या गंभीर रूप में दिखाई दे सकता है। थैलेसीमिया की वजह से पीड़ित के शरीर में खून की कमी न हो, इसलिए उसे नियमित रूप से ब्लड ट्रांसफ्यूजन की जरूरत पड़ती है।

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