पिछले तीन दशकों में भारत के लोगों के जीवनकाल (लाइफ एक्सपेक्टेंसी) में दस साल से ज्यादा की बढ़ोतरी हुई है। जानी-मानी मेडिकल पत्रिका दि लांसेट ने बताया है कि 1990 से लेकर अब तक भारतीयों की उम्र 10 साल से अधिक बढ़ गई है। हालांकि राज्यों के स्तर पर लाइफ एक्सपेक्टेंसी में असमानता है। लांसेट ने 200 से ज्यादा देशों व अलग-अलग भौगोलिक क्षेत्रों में लोगों की मृत्यु के 286 से ज्यादा कारणों और 369 बीमारियों तथा इंजरी का आंकलन किया था। अध्ययन में पता चला कि जहां 30 साल पहले यानी 1990 में भारतीयों की औसत उम्र 59.6 साल थी, वहीं 2019 में यह 70.8 वर्ष हो गई। राज्यों की बात करें तो केरल में रहने वालों का जीवनकाल दस साल बढ़कर सबसे अधिक 77.3 साल हो गया है, जबकि उत्तर प्रदेश में यह 66.9 वर्ष तक पहुंच गया है, जो देश के बाकी राज्यों की अपेक्षा सबसे कम है।

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लांसेट के इस अध्ययन में गुजरात के गांधीनगर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक हेल्थ के वैज्ञानिक श्रीनिवास गोली भी शामिल थे। वे बताते हैं कि भारत के लोगों का जीवनकाल बढ़ा है, हालांकि उनके 'स्वस्थ जीवनकाल' में नाटकीय वृद्धि नहीं देखने को मिली है। समाचार एजेंसी पीटीआई से बातचीत में श्रीनिवास कहते हैं कि भारत में कई लोग अपने जीवन का अधिकतर समय बीमारी और अक्षमता के साथ बिताते हैं, इसलिए उनकी हेल्दी लाइफ एक्पेक्टेंसी में अपेक्षित बढ़ोतरी नहीं हुई है। वहीं, अध्ययन में शामिल वैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय टीम के मुताबिक, दीर्घकालिक बीमारियों से जुड़े वैश्विक संकट और सार्वजनिक स्वास्थ्य की असफलता ने उन स्वास्थ्य खतरों को भी बढ़ाने का काम किया है, जिन्हें आसानी से नियंत्रित में की जाने वाली माना जाता है। इनमें हाई ब्लड प्रेशर, तंबाकू की लत और वायु प्रदूषण जैसे खतरे शामिल हैं, जिनके चलते आबादी के एक बड़े हिस्से पर स्वास्थ्य संकटों (जैसे कोविड-19) के समय जोखिम बना रहता है।

पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, अध्ययन के सह-लेखक और यूनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन के अली मोकदाद कहते हैं, 'भारत समेत लगभग सभी देशों में संक्रामक रोगों में कमी और क्रॉनिक डिसीजेज में बढ़ोतरी देखी गई है। भारत की बात करें तो यहां मातृत्व संबंधी मृत्यु दर काफी ज्यादा हुआ करती थी, लेकिन अब इसमें कमी हो रही है। वहीं, मौतों के लिए हृदय संबंधी रोग पांचवां सबसे बड़ा कारण होते थे, लेकिन अब यह पहला कारण बन चुका है। कैंसर की दर भी बढ़ रही है।'

शोधकर्ताओं ने यह भी बताया कि बीते सालों में दक्षिण एशिया में आधे से ज्यादा मौतें खराब स्वास्थ्य, विकलांगता और अकाल मृत्यु से संबंधित नॉन-कम्युनिकेबल डिसीजेज (एनसीडी, जैसे हृदय रोग, स्ट्रोक, कैंसर, डायबिटीज आदि) के कारण हुई हैं। भारत का उदाहरण देते हुए लांसेट ने कहा है कि भारत में अब बीमारियों से होने वाली 58 प्रतिशत मौतें नॉन-कम्युनिकेबल डिसीजेज के कारण होती हैं। 1990 में 29 प्रतिशत मौतों के लिए एनसीडी जिम्मेदार होती थी। वहीं, एनसीडी के चलते अकाल मृत्यु के मामले 22 प्रतिशत से 50 प्रतिशत हो गए हैं। अध्ययन की मानें तो एनसीडी श्रेणी की जिन बीमारियों के चलते पिछले 30 सालों में भारत में स्वास्थ्य हानि बढ़ी है, उनमें हृदय रोग के अलावा सीओपीडी (क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज), डायबिटीज, स्ट्रोक और मांसपेशियों से जुड़े डिसऑर्डर शामिल हैं। 

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वैज्ञानिकों का कहना है कि 1990 के बाद से भारत ने स्वास्थ्य के मामले में काफी सुधार किया है, लेकिन बच्चों और मांओं में कुपोषण अभी भी बीमारी और मृत्यु का एक रिस्क फैक्टर बना हुआ है। उन्होंने बताया कि बिहार और उत्तर प्रदेश समेत उत्तर भारत के कई राज्यों में बीमारियों के कारण होने वाली मौतों के लिए कुपोषण पांचवें सबसे बड़े कारण के रूप में सामने आया है। वहीं, दक्षिण भारत के आठ राज्यों में हाई बीपी तीसरा और वायु प्रदूषण दूसरा सबसे बड़ा रिस्क फैक्टर है।

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