बच्चे के जन्म के बाद नई-नई मां बनी महिला को कई प्रकार की भावनाओं से गुजरना पड़ सकता है। इनमें आनंद से लेकर चिंता और भय से लेकर उत्साह से जुड़े प्रभाव शामिल हैं। लेकिन इन भावनाओं का परिणाम अवसाद भी हो सकता है। बच्चे के जन्म के बाद कई महिलाओं को अवसाद से गुजरना पड़ सकता है। मेडिकल शब्दावली में इसे पोस्पार्टम डिप्रेशन कहते हैं। इस कंडीशन में मां बनी महिला के मूड में बदलाव आते हैं, वह बिना बात के रोने लगती है, चिंतित रहती हैं और उसकी नींद भी प्रभावित होती है। इन सबके अलावा पोस्टपार्टम डिप्रेशन के कुछ प्रकार महिलाओं में लंबे समय तक बने रह सकते हैं, जैसे कि पोस्टपार्टम साइकोसिस।
अमेरिका में हुए एक अध्ययन के मुताबिक, बच्चे के जन्म के बाद महिला में डिप्रेशन के लक्षण लंबे समय तक बने रह सकते हैं। अध्ययन के शोधकर्ताओं ने 5,000 से ज्यादा महिलाओं पर शोध करने के बाद यह जानकारी दी है। अमेरिकी सरकार के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ के तहत हुए इस अध्ययन की मानें तो बच्चे के जन्म के बाद के तीन सालों के दौरान कभी न कभी मां में डिप्रेसिव सिंपटम उच्च स्तर के साथ दिख सकते हैं। शोधकर्ताओं का मानना है कि जन्म देने के बाद हर चार महिलाओं में से एक में ये लक्षण दिख सकते हैं। इन वैज्ञानिकों का मानना है कि इस नई जानकारी से उन्हें मांओं के मानसिक स्वास्थ्य को और बेहतर तरीके से समझने में मदद मिलेगी, जोकि बच्चे के स्वास्थ्य के साथ-साथ उसके विकास के लिए भी जरूरी है।
अध्ययन के तहत वैज्ञानिकों ने प्रतिभागी महिलाओं को डिप्रेशन से संबंधित एक प्रश्नावली दी थी। शोध के दौरान यह नहीं देखा गया कि कौन सी महिला डिप्रेशन में है और कौन सी नहीं। हालांकि बच्चे के जन्म के तीन सालों तक इन महिलाओं में कभी न कभी अवसाद के लक्षण दिखे थे। ऐसे में उनका डायग्नॉसिस करने के बजाय उनसे सवाल पूछे गए। इससे पता चला कि पोस्टपार्टम डिप्रेशन की शिकार महिलाओं में मूड डिसऑर्डर या जेस्टेशनल डायबिटीज जैसी मेडिकल कंडीशन ज्यादा होती हैं। अध्ययन में किए गए आंकलन के मुताबिक, ऐसी महिलाओं के अवसाद संबंधी लक्षण उच्च स्तर के हो सकते हैं।
आमतौर पर अमेरिका में चाइल्डबर्थ के बाद शिशुरोग विशेषज्ञ छह महीनों तक मांओं के पोस्टपार्टम डिप्रेशन की जांच करते हैं। लेकिन नए अध्ययन के सामने आने के बाद शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि बच्चे के जन्म के बाद मां की पोस्टपार्टम डिप्रेशन स्क्रीनिंग कम से कम दो साल तक करना फायदेमंद हो सकता है। इस बारे में अध्ययन के प्रमुख डिएन पुटनिक का कहना है, 'हमारा अध्ययन यह संकेत देता है कि डिप्रेसिव लक्षणों का पता लगाने के लिए छह महीने संभवतः पर्याप्त समय नहीं होते। ये दीर्घकालिक डेटा मांओं के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर हमारी समझ को बढ़ाने में मदद कर सकते हैं।' गौरतलब है कि इस अध्ययन को बाल स्वास्थ्य से जुड़ी जानी-मानी मेडिकल पत्रिका पेडियाट्रिक्स में प्रकाशित किया गया है, जिसे अमेरिकन अकेडमी ऑफ पेडियाट्रिक्स द्वारा प्रकाशित किया जाता है।
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क्या है पोस्टपार्टम डिप्रेशन?
पोस्टपार्टम डिप्रेशन प्रसव के बाद महिला में दिखने में वाली एक मानसिक स्थिति है, इसलिए इसे प्रसवोत्तर अवसाद भी कहते हैं। यह एक प्रकार की मनोदशा है, जो महिला में बच्चे के जन्म बाद देखने को मिलती है। हालांकि ऐसा गर्भावस्था से जुड़ी अन्य परिस्थितियों में भी देखने को मिल सकता है। मिसाल के लिए, अगर किसी कारणवश महिला का गर्भपात हो जाए या बच्चा मृत पैदा हो, तो भी महिला अवसाद का शिकार हो सकती है। पोस्टपार्टम डिप्रेशन में महिला बहुत ज्यादा उदास रहती है, उसकी ऊर्जा में कमी हो जाती है और साथ ही चिंता तथा सोने और खाने की टाइमिंग में बदलाव होने लगते हैं। वह बात-बात पर रोने लगती है और उसमें चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है। बताया जाता है कि आमतौर पर प्रसव के एक हफ्ते या एक महीने बाद प्रसवोत्तर अवसाद के लक्षण दिखते हैं। मां के इससे पीड़ित होने का प्रभाव बच्चे के लालन-पोषण पर भी पड़ सकता है। अभी तक इस कंडीशन के सही कारण का पता नहीं चला है। लेकिन माना जाता है कि बच्चे के जन्म के बाद शारीरिक और भावनात्मक कारणों के चलते महिला पोस्टपार्टम डिप्रेशन में आ जाती है। हार्मोन में परिवर्तन नींद की कमी को इसके प्रमुख कारकों में से एक माना जाता है।
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