भारत में हर साल 1 जुलाई को नैशनल डॉक्टर्स डे मनाया जाता है और इस दिन का मकसद है देश के प्रसिद्ध फिजिशियन डॉ बिधान चंद्र रॉय की जन्मतिथि और पुण्यतिथि को मनाना। साल 2020 में कोविड-19 महामारी का बोलबाला है और यह इन डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की बिना रुके, बिना डरे की जाने वाली सेवा का ही नतीजा है जिसकी वजह से दुनियाभर के लोग इस वायरल इंफेक्शन का सामना कर पा रहे हैं। 

डॉक्टरों द्वारा दिए जा रहे इस महत्वपूर्ण योगदान को याद करना और सेलिब्रेट करना तो अहम है ही, साथ ही साथ हमें इस दिन यह भी याद रखना चाहिए कि किस तरह ये डॉक्टर्स अपनी जान की परवाह किए बिना इंसानियत के साथ हमारी सेवा करते हैं। ऐसे में नैशनल डॉक्टर्स डे के मौके पर हमने दिल्ली के अस्पताल में कोविड-19 वॉर्ड में पोस्टेड जूनियर रेसिडेंट डॉक्टर जैस्मीन कौर से बात की जिन्होंने पिछले कुछ महीनों के अपने अनुभव के बारे में हमें बताया।

जब रक्षक बने डॉक्टर
डॉ जैस्मीन कहती हैं, 'मौजूदा समय में हम सभी बारी-बारी से 12 घंटे की शिफ्ट कर रहे हैं। एक दिन 12 घंटे की ड्यूटी दिन के समय और फिर अगले दिन 12 घंटे की ड्यूटी रात के समय। इस तरह से हमें 14 दिन लगातार काम करता होता है और उसके बाद हमें 14 दिन का क्वारंटीन ब्रेक मिलता है। इसमें से क्वारंटीन के 7 दिन उस होटल रूम में गुजरते हैं जहां हमारी व्यवस्था की गई है और बाकी के 7 दिन घर पर। हालांकि इन बाकी के बचे 7 दिनों में भी मैं घर नहीं जाती हूं।' 

'मुझे डर लगता है कि अगर मैं बिना नेगेटिव टेस्ट किए ही घर चली जाउंगी तो हो सकता है कि मैं अपने माता-पिता को भी संक्रमित कर दूं। मेरे पैरंट्स बुजुर्ग हैं। मेरे पिता डायबिटीज के मरीज हैं और मेरी मां को हाल ही में हड्डी में फ्रैक्चर हुआ है। इसलिए मैं उनके साथ रहने का जोखिम नहीं उठा सकती।' डॉ जैस्मीन ने एक कमरा किराए पर ले रखा है जहां वे क्वारंटीन वीक के दौरान अकेले रहती हैं क्योंकि उनका ऐसा मानना है कि यह डॉक्टरों की जिम्मेदारी है कि वे मरीजों का इलाज करने के साथ ही देश के बाकी नागरिकों को भी संक्रमित होने से बचाएं।

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डॉ जैस्मीन आगे कहती हैं, 'जब हम कहीं बाहर होते हैं तब भी हमें दूरी बनाकर रखने की जरूरत होती है ताकि अगर हमें संक्रमण हुआ हो तो हम उसे दूसरों तक इसे न पहुंचने दें। इसलिए जब भी मैं कभी अस्पताल या रूम से बाहर होती हूं तो मैं किसी के भी नजदीक जाने से बचने की कोशिश करती हूं। वैसे तो मैं हमेशा यही कोशिश करती हूं कि मुझे कहीं बाहर जाना ही न पड़े, जब तक बहुत जरूरी काम न हो।' जी हां, डॉ जैस्मीन की ये बातें सुनकर आप सोच सकते हैं कि इस तरह से रहने पर उन्हें कितना अकेलापन महसूस होता होगा लेकिन उनके जैसे कई डॉक्टर हैं जिनके लिए मरीजों की सेवा पहली प्राथमिकता है।

पीपीई पहने पर कैसा महसूस होता है डॉ जैस्मीन से जानें
डॉ जैस्मीन कहती हैं, 'शारीरिक रूप से और मानसिक रूप से दोनों ही तरह से यह अनुभव बहुत ज्यादा थकाने वाला है। महामारी से पहले अस्पताल का सारा काम बिना किसी बाधा या रुकावट के हो जाता था। लेकिन अब मरीजों का बढ़ता बोझ, हर वक्त ऐहतियात और सावधानी बरतने की जरूरत, एक तरह की मानसिक लड़ाई, कागजों पर किया जाने वाला काम, फिजिकल काम सबकुछ बहुत ज्यादा बढ़ गया है। और भारी भरकम पीपीई पहनने के बाद ये सारे काम करने के लिए आपको दोगुनी शारीरिक शक्ति की जरूरत होती है।'  

अगर आपको लगता है कि महज 1 या 2 घंटे तक मास्क पहनकर रखना बहुत मुश्किल और मेहनत का काम है तो डॉ जैस्मीन की बात सुनें जो आपको बता रही हैं कि मरीजों की सेवा करते वक्त लगातार 6 घंटे तक कम्प्लीट पीपीई पहनकर रखने पर कैसा महसूस होता है। 'हर वक्त पीपीई पहनकर रखना एक तरह से मिचली पैदा करने वाला अनुभव है। आपको कुछ भी महसूस नहीं होगा, ग्लव्स के अंदर आपके हाथ सुन्न हो जाएंगे, आपको लगातार बेहिसाब पसीना आता रहेगा और आपको ऐसा महसूस होगा कि आपकी धड़कन की रफ्तार बढ़ गई है। आपके शरीर का तापमान अचानक बढ़ने लगता है और आपको चक्कर जैसा महसूस होने लगता है। आप जितनी ज्यादा देर कोविड वॉर्ड में पीपीई के साथ रहेंगे उतनी ज्यादा देर तक आपको ये सारी चीजें महसूस होंगी। लेकिन आपको वहां मरीजों के लिए हर वक्त रहना पड़ता है।' 

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कोविड वॉर्ड में डॉक्टरों का इंसानियत दिखाना
कोविड वॉर्ड में भर्ती बुजुर्ग मरीजों के साथ अपने अनुभव के बारे में बताते हुए डॉ जैस्मीन कहती हैं, 'मरीज वॉर्ड में लेटे होते हैं और उनके आसपास न तो उनके परिवार का कोई सदस्य होता है और ना ही कोई ऐसा जो प्यार से उनसे दो बातें कर सके, उन्हें बता सके कि वे जल्दी ही ठीक हो जाएंगे। ऐसे बहुत से मरीज हैं जो कई बार अपने परिजनों को आखिरी बार देखे बिना ही मर जाते हैं। वह क्षण बेहद भावुक करने वाला होता है क्योंकि वे अपने आखिरी शब्द हम डॉक्टरों से कहते हैं अपने घरवालों परिवारवालों से नहीं।' 

'ऐसी एक घटना हुई जिसमें एक बुजुर्ग मरीज थे जिनकी उम्र 78 वर्ष के आसपास थी और वह बेहद बूढ़े और दुर्बल नजर आ रहे थे। मुझे उनका ब्लड सैंपल लेना था, उनका ब्लड प्रेशर चेक करना था और ऑक्सीजन सैचुरेशन भी। लेकिन जब मैंने देखा कि वे अपनी आंखें भी नहीं खोल पा रहे थे और उन्हें सांस लेने में इतनी मुश्किल हो रही थी कि मुझे तुरंत अपने दादा जी के आखिर दिनों की याद आ गई। मैंने उनका हाथ पकड़ा और उनसे कहा, बाबा आप ठीक हैं ना? लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने सिर्फ मेरा हाथ कसकर पकड़ रखा था और छोड़ नहीं रहे थे।' 

'मुझे नहीं पता कि मैं वहां कितनी देर तक थी सिर्फ उनका हाथ कसकर पकड़े हुए और उनके सिर को धीरे-धीरे सहलाते हुए ताकि जो भी थोड़ा बहुत आराम मैं उन्हें दे पाऊं, मैंने दिया।' उस घटना को याद करते हुए डॉ जैस्मीन आगे कहती हैं, 'मैं वहां से तब तक नहीं हटी जब तक मेरी एक सहयोगी वहां से आकर मुझे अपने साथ नहीं ले गईं। जैसे ही मैं उस कमरे से बाहर आयी मैं खुद को रोक नहीं पायी और अपनी सहयोगी के गले लगकर मैं बहुत रोई।'

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तनाव, बेचैनी और डॉक्टरों की अतिसंवेदनशीलता
डॉ जैस्मीन बताती हैं कि कैसे उन्हें इन सारी चीजों से कितनी बेचैनी महसूस होती है और उन्होंने एक घटना के बारे में भी बताया जिसमें उनकी एक कॉलीग को एक मरीज के सामने ही एंग्जाइटी अटैक आ गया था। 'वह मरीज का ब्लड सैंपल ले रही थी और तभी अचानक उसके फेस शील्ड और पीपीई पर खून के छींटें आ गए। जाहिर सी बात है कि वह बहुत ज्यादा डर गई थी।' 

इस तरह के अनुभव हमें याद दिलाते हैं कि डॉक्टर भी इंसान ही हैं और इसलिए उन्हें भी अलग हटने और खुद को तनाव मुक्त करने की जरूरत होती है। हालांकि इतने बड़े स्तर की महामारी के समय ये सारी चीजें संभव नहीं हैं। डॉ जैस्मीन मुस्कुराते हुए कहती हैं, 'हम लोग आमतौर पर स्ट्रेस को मैनेज करने के लिए टाइम मैनेज नहीं कर पाते हैं। जैसे ही मैं घर पहुंचती हूं मैं नहाकर सीधे सो जाती हूं। यह करना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि अगले कुछ घंटों में मुझे ड्यूटी पर वापस जाना है। कई बार इन सारी चीजों को एक साथ संभालना मुश्किल हो जाता है। इसलिए मैं घर पहुंचते ही सो जाती हूं ताकि मुझे दिनभर में जो भी अनुभव महसूस हुए उन इमोशन्स को मुझे अपने अंदर अवशोषित करने का समय ही न मिले।'   

डॉक्टरों को इस वक्त जो अतिसंवेदनशीलता महसूस हो रही है उसका संबंध इस बात से भी है कि कोविड-19 एक बिलकुल नई बीमारी है और मौजूदा समय में उनके पास लक्षण वाले मरीजों (symptomatic) के इलाज के लिए कुछ ही विकल्प मौजूद हैं। इस बीमारी का न तो कोई स्पष्ट इलाज मौजूद है और ना ही वैक्सीन जिसे वे अपने मरीजों को दे दें और इस बात की गारंटी हो जाएगी कि वे पूरी तरह से रिकवर हो जाएंगे। लिहाजा वे इस समय मरीजों की समर्पित तरीके से सेवा कर सकती हैं, कुछ हद तक उनकी सहयोगी बनकर उनका साथ दे सकती हैं और पुनर्उद्देशित यानी रीपर्पस्ड दवाओं का इस्तेमाल किया जा सकता है जो मरीज के बीमारी के लक्षणों पर निर्भर करता है कि वह दवा काम करेगी या नहीं।

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डॉ जैस्मीन कहती हैं, 'डॉक्टर होने के नाते एक तरह से हम मरीजों की तरह ही बेबस महसूस करते हैं क्योंकि हमें भी कोविड-19 के बारे में सबकुछ पता नहीं है और हमारे पास कोई ऐसा इलाज भी मौजूद नहीं है जो 100 प्रतिशत कारगर साबित हो। हम सिर्फ अपने मरीजों को बेहतर महसूस कराने की कोशिश करते हैं, जितना हो सकता है उनका इलाज करते हैं और उन्हें आश्वासन देते हैं कि हम यहां उनके साथ हैं।'


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