मासिक चक्र के आखिरी दिन से लेकर डिलीवरी तक 40 हफ्तों की प्रेग्‍नेंसी होती है। हालांकि, हर किसी की प्रेग्‍नेंसी अलग होती है जिसका असर मां और बच्‍चे की सेहत पर पड़ता है। 39वें हफ्ते की शुरुआत से लेकी 40वे हफ्ते के खत्‍म होने को फुल टर्म प्रेग्‍नेंसी के रूप में जाना जाता है और इस बीच डिलीवरी हो तो इसे मां और बच्‍चे दोनों के लिए अच्‍छा माना जाता है।

वहीं जब 37वें हफ्ते की शुरुआत और 38वे हफ्ते के आखिर से पहले डिलीवरी हो जाए तो इसे अर्ली टर्म और 37वे हफ्ते से पहले कभी भी डिलीवरी होने को प्रीटर्म कहते हैं। इस समय होने वाली डिलीवरी को सही नहीं माना जाता है क्‍योंकि अभी तक शिशु का पूरा विकास नहीं होता है और इस समय डिलीवरी होने से मुश्किलें आ सकती हैं।

लगभग 5 से 10 पर्सेंट महिलाओं की प्रेग्‍नेंसी 42वे हफ्ते के बाद तक चलती है और लगभग 20 पर्सेंट महिलाओं में लेबर पेन को शुरू करने की जरूरत पड़ती है। 42वा हफ्ता पार करने के बाद पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी हो जाती है।

अक्‍सर आखिरी मासिक चक्र की गलत तारीख पता होने या डिलीवरी डेट सही से कैलकुलेट न कर पाने की वजह से ऐसा होता है। इसलिए, गर्भावस्था की शुरुआत में अल्ट्रासाउंड की हर तारीख ध्‍यान रखना आवश्यक है, खासतौर पर पहली तिमाही में। अगर अल्‍ट्रासांउड में भ्रूण तीन हफ्ते से कम या ज्‍यादा आता है

यदि अल्ट्रासाउंड में भ्रूण उम्र मां द्वारा बताई गई मासिक धर्म की आखिरी तारीख द्वारा काउंट किए गए तीन सप्ताह से कम या अधिक है, तो मासिक धर्म की आखिरी डेट को गलत माना जाता है। क्राउन लंप लैंथ (सीआरएल) और हेड सरकमफ्रेंस (एसची) पहली तिमाही के अल्‍ट्रासाउंड में मापा जाता है और इसी से गर्भधारण की तारीख पता लगाई जाती है। पहली तिमाही के अल्‍ट्रासाउंड से पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी की जटिलताओं और इनके होने की संभावना कम हो जाती है। हालांकि, 42वे हफ्ते के बाद भी प्रेग्‍नेंसी के जारी रखने का कारण पता नहीं है लेकिन कुछ कारक पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी के जोखिम को बढ़ा सकते हैं।

  1. पोस्‍ट प्रेग्‍नेंसी के लक्षण
  2. पोस्‍ट टर्म प्रेग्‍नेंसी के कारण
  3. पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी में आने वाली जटिलताएं
  4. पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी को कैसे मैनेज करें
  5. पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी से कैसे बचें
पोस्ट टर्म प्रेगनेंसी के डॉक्टर

पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी में आमतौर पर निम्‍न चीजें दिखाई देती हैं :

  • डिलीवरी से पहले मां में :
    • डिलीवरी डेट से प्रेग्‍नेंसी का एक से दो हफ्ते आगे बढ़ जाना।
    • लेबर पेन न होना या लेबर के अन्‍य संकेत न दिखना
    • फीटल मूवमेंट कम होना
    • गर्भाशय का साइज छोटा होना जो एम्निओटिक फ्लूइड या इंट्रायूट्राइन ग्रोथ रिटारटेशन की वजह से प्रेग्‍नेंसी के कई हफ्तों बाद भी न बढ़े।
    • झिल्लियों के फटने पर मेकोनियम स्‍टेन एम्निओटिक फ्लूइड दिख सकता है।
       
  • डिलीवरी के बाद शिशु में :
    • बेबी में सबक्‍यूटेनिअस फैट का सामान्‍य मात्रा से कम होना और नरम ऊतक में मांस कम होना।
    • शिशु लो बर्थ वेट या मैक्रोस्‍कोमिक हो सकता है।
    • शिशु की स्किन ढीली, परतदार और सूखी हो सकती है।
    • उसके हाथ और पैर के नाखून सामान्‍य से लंबे हो सकते हैं और इन पर मेकोनियम से पीले धब्‍बे हो सकते हैं।
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आखिरी मासिक धर्म की गलत डेट पता होने को पोस्‍ट टर्म प्रेग्‍नेंसी का सबसे आम कारण माना जाता है। आखिरी मासिक चक्र के पहले दिन से प्रेग्‍नेंसी को कैलकुलेट किया जाता है। हर बार पीरियड्स 28 दिन के गैप में होते हैं तो डिलीवरी आखिरी मासिक चक्र के पहले दिन से पूरे 40 हफ्ते के बाद होगी।

हालांकि, कभी-कभी महिलाओं को अपनी पीरियड्स की डेट सही से याद नहीं होती है या लंबे या अनियमित पीरियड्स की वजह से गलत डिलीवरी डेट अनुमानित कर ली जाती है जिससे गलत पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी होती है।

यहां तक पहले से मौजूद कुछ कारक भी पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी का कारण बन सकते हैं, जैसे कि :

  • पहली प्रेग्‍नेंसी
  • पहले पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी रह चुकी हो
  • गर्भ में लड़का होना
  • जेनेटिक कारक जिसका संबंध पिता से ज्‍यादा मां से हो
  • मां में ओबेसिटी होना

डिलीवरी की अनुमानित डेट का सही से पता लगाना इसलिए जरूरी होता है ताकि शिशु का जन्‍म समय से पहले न हो। हर हफ्ते शिशु का विकास होता है इसलिए अगर उसका जन्‍म जल्‍दी हो जाता है, तो हो सकता है कि उसका विकास पूरी तरह से न हो पाए। यहां तक कि कुछ दिन पहले ही पैदा होने पर नवजात शिशु की सेहत प्रभावित हो सकती है, उसे एनआईसीयू में रहना पड़ सकता है।

हालांकि, जो बच्‍चे 41वे सा 42वे हफ्ते तक भी जन्‍म नहीं लेते, उनमें अलग तरह की जटिलताएं देखी जाती हैं। इन्‍हें निम्‍न समस्‍याएं हो सकती हैं :

  • प्‍लेसेंटल इनसफिशिएंसी एंड डिस्‍मैच्‍योरिटी : प्‍लेसेंटा से गर्भ में शिशु को पोषण और ऑक्‍सीजन मिलता है। प्‍लेसेंटा शिशु के खून से हानिकारक विषाक्‍त पदार्थों को हटा देती है। किसी भी हफ्ते में प्‍लेसेंटल इनसफिशिएंसी या इसमें कोई समस्‍या आ सकती है। आमतौर पर जब प्रेग्‍नेंसी पूरी होने वाली होती है यानि की 39वे हफ्ते में प्‍लेसेंटा पीछे की ओर हटना शुरू करता है।
  • प्‍लेसेंटल इनसफिशिएंसी की वजह से भ्रूण को पर्याप्‍त मात्रा में पोषक तत्‍व या ऑक्‍सीजन नहीं मिल पाता है जिससे पतले और कुपोषण का शिकार हुए नवजात शिशु का ब्‍लड ग्‍लूकोज लेवल और एम्निओटिक फ्लूइड की वॉल्‍यूम गिर जाती है।
  • जन्‍म के समय छोटा होना : कुछ शिशुओं का आकार जन्‍म के समय सामान्‍य से छोटा होता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि प्‍लेसेंटल इनसफिशिएंसी कब हुई है। हो सकता है कि शिशु की ग्रोथ रूकने की वजह से वह छोटा रह गया हो। पोस्‍ट-टर्म डिलीवरी के बावजूद बच्‍चा लो बर्थ वेट हो सकता है।
  • इंट्रायूट्राइन ग्रोथ रिटारडेशन : उपरोक्‍त जटिलता की तरह ही प्‍लेसेंटल इनसफिशिएंसी जल्‍दी होने की वजह से शिशु का विकास धीमा हो सकता है।
  • मैक्रोसोमिक या बड़ा बेबी : जिसका वजन 4 किलो से ज्‍यादा हो : लगातार विकास होने की वजह से जन्‍म के समय शिशु का वजन ज्‍यादा हो सकता है। अधिक वजन वाले शिशु के जन्‍म में निम्‍न जटिलताएं आ सकती हैं :
    • लेबर देर तक रहता है
    • सेफालो-पेल्विक डिस्‍प्रपोर्शन, इसमें शिशु का सिर मां के पेल्विस से निकलने के लिए बहुत ज्‍यादा बड़ा होता है।
    • शोल्‍डर डिस्‍टोसिया : जहां मां का पेल्विक हिस्‍सा खुलता है, डिलीवरी के समय शिशु का एक कंधा वहां अटक सकता है। इसमें बेबी का सिर पूरा निकलने के बावजूद उसे व‍ापिस अंदर किया जाता है।
    • जन्‍म के समय चोट लगने की वजह से सेरेब्रल पाल्‍सी या बांह की नसों को चोट लग जाती है।
  • पेरिनेटल एस्फिक्यिा : प्‍लेसेंटा के टूटने या इसके काम न कर पाने पर भ्रूण को ऑक्‍सीजन की कमी हो सकती है। कभी-कभी एम्निओटिक फ्लूइड की कमी की वजह से अम्बिलिकल कॉर्ड दब जाती है और इससे शिशु को मिलने वाला ऑक्‍सीजन प्रभावित होता है।
  • मेकोनियम एस्पिरेशन सिंड्रोम : जन्‍म के पहले या दूसरे दिन शिशु की पहली पॉटी को मेकोनियम कहते हैं। कभी-कभी पोस्‍ट-टर्म और टर्म बेबी गर्भ में ही मेकोनियम निकाल सकते हैं। इससे आसपास के एम्निओटिक फ्लूइड पर पीले से हरे धब्‍बे पड़ने लगते हैं। जन्‍म के समय शिशु मेकोनियम निगल सकता है और अगर इससे उसका श्‍वसन मार्ग ब्‍लॉक हो जाए तो उसे रेस्पिरेट्री डिस्‍ट्रेस हो सकता है।
  • निओनेटल हाइपोग्‍लाइसेमिया : प्‍लेसेंटा से मिलने वाले पोषक तत्‍वों की कमी की वजह से शिशु एनर्जी के लिए मां के शरीर में स्‍टोर ग्‍लाइकोजन का इस्‍तेमाल करने लगता है। इससे कुपोषित नवजात शिशु लो ब्‍लड ग्‍लूकोल लेवल के साथ पैदा होता है।
  • निओनेटल एसिडेमिया : इलेक्‍ट्रोलाइट असंतुलन की वजह से नवजात शिशु के खून में पीएच का स्‍तर कम या एसिडिक हो सकता है।
  • लो फाइव-मिनट अपगार स्‍कोर : नवजात शिशु के स्किन कलर, हार्ट रेट, एक्टिविटी, सांस लेने की गति और शरीर की टोन, इन पांच घटकों के आधार पर अपगार स्‍कोर दिया जाता है। इसमें 10 में से स्‍कोर दिया जाता है।
  • निओनेटल एंसेफलोपैथी : इसमें 35 सप्‍ताह के गर्भस्‍थ या नवजात शिशु को जन्‍म के बाद शुरुआती दिनों में ही नसों से संबंधित समस्‍या हो सकती है। इसमें बेसुध होना या दौरे पड़ते हैं। सांस लेने के लिए किए गए प्रयासों में भी कमी आ सकती है।
  • दौरे : निओनेटल एंसेफलोपैथी या हाइपोग्‍लाइसेमिया की वजह से नवजात शिशु को दौरे पड़ सकते हैं।

मैटरनल कॉम्प्लिकेशन : नवजात शिशु के अलावा पोस्‍ट-टर्म से मां को भी मुश्किलें हो सकती हैं, जैसे कि :

  • प्रसव में दिक्‍कत आना
  • पेरिनियम का डैमेज होना
  • इंस्‍ट्रयुमेंटल वैजाइनल डिलीवरी
  • सिजेरियन डिलीवरी
  • पोस्‍टपार्टम हेमरेज
  • इंफेक्‍शन

लंबी चलने वाली प्रेग्‍नेंसी में समय पर लेबर शुरू करवा कर कॉम्प्लिकेशन से बचा जा सकता है। अगर गर्भाशय या गर्भाशय ग्रीवा सही स्थिति में नहीं है और बहुत जल्‍दी लेबर शुरू करने की कोशिश कर दी गई है तो निम्‍न समस्‍याएं आ सकती हैं :

वर्तमान के दिशा-निर्देशों के अनुसार प्रेग्‍नेंसी के 41वा हफ्ता पार करने के बाद इंडक्‍शन ऑफ लेबर (आईओएल) का विकल्‍प महिला को दिया जाना चाहिए। यदि वह इस विकल्‍प से इनकार करती है तो प्रेग्‍नेंसी के 42वे हफ्ते में इंटेंसिव एनटेार्टम फीटल मॉनिटरिंग की जाती है।

  • एंटेपार्टम फीटल मॉनिटरिंग : जिस पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी में आईओएल नहीं किया जाता, उसमें 41वे हफ्ते से सख्‍ती से एंटेपार्टम फीटल सर्विलांस करना चाहिए। इसका सबसे बेहतर तरीका है हफ्ते में दो बार बायोफिजिकल प्रोफाइल टेस्‍ट करवाना। इसमें दो टेस्‍ट आते हैं :
    • नॉन-स्‍ट्रेस टेस्‍ट : इसमें 20 से 30 मिनट के लिए शिशु की मूवमेंट, हार्ट रेट और इसकी रिएक्टिविटी को मापा जाता है।
    • एम्निओटिक फ्लूइड इंडेक्‍स : फ्लूइड वॉल्‍यूम में कमी या मेकोनियम का दाग लगने के संकेत मिलने पर आईओएल और डिलीवरी करवानी चाहिए।
       
  • एक्‍सपेक्‍टेंट मैनेजमेंट : पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी के एक्‍सपेक्‍टेंट मैनेजमेंट से मतलब है 42वे हफ्ते के बाद लेबर पेन नैचुरली शुरू करने के तरीके अपनाना। यह महिला की मर्जी या आईओएल के लिए गर्भाशय या ग्रीवा की अनुचित स्थिति में हो सकता है।
  • इंडक्‍शन ऑफ लेबर : प्रेग्‍नेंसी के 41वे हफ्ते के आसपास यदि महिला आईओएल के लिए मना कर देती है या गर्भाशय या ग्रीवा अनुचित स्थिति में है तो एक्‍सपेक्‍टेंट मैनेजमेंट किया जाता है। इंडक्‍शन से पहले गर्भाशय ग्रीवा की स्थिति जानने के लिए वैजाइना की जांच की जाती है और मेंब्रेन स्‍वीपिंग की जाती है। चिकित्‍सकीय रूप से लेबर लाने के लिए निम्‍न स्‍टेप्‍स हैं :
    • योनि में प्रोस्‍टाग्‍लैंडिन जेल या सपोसिटरी लगाई जाती है और कुछ घंटों के बाद लेबर शुरू हो जाता है।
    • यूट्राइन कॉन्‍ट्रैक्‍शन शुरू करने के लिए ऑक्‍सीटोसिन की ड्रिप नस में लगाई जाती है।
    • अगर अब भी झिल्लियां नहीं खुलती हैं, तो आर्टिफिशियन रप्‍चर ऑफ मेंब्रेन (एआरएम) किया जाता है। इसमें हुक जैसे विशेष उपकरण से झिल्लियों को तोड़ा जाता है। इसमें दर्द नहीं होता है।
    • लेबर अपने आप शुरू हो या चिकित्‍सकीय रूप से, पोस्‍ट-टर्म प्रेग्‍नेंसी दिक्‍कत ला सकती है। अगर डॉक्‍टर को यकीन नहीं है कि बेबी लेबर को बर्दाश्‍त कर पाएगा या नहीं और फीटल हार्ट रेट पता नहीं चल पा रहा है, तो सिजेरियन डिलीवरी की सलाह दी जाती है।
  • पोस्‍टमैच्‍योर इंफैंट : प्रेग्‍नेंसी के 42वे हफ्ते के बाद पैदा होने वाने शिशुओं को कई तरह की जटिलताओं से गुजरना पड़ता है। शिशु के पैदा होने के बाद, जितना जल्‍दी हो सके इसका पता लगाने की जरूरत होती है। नवजात शिशु की नियमित देखभाल के अलावा पोस्‍ट-टर्म बेबी को निम्‍न उपायों की जरूरत पड़ सकती है :
  • लो अपगार स्‍कोर जिनका स्‍कोर 5 से कम हो, उन्‍हें निओनेटल रिसुससिटेशन की जरूरत पड़ सकती है।
  • मेकोनियम एस्पिरेशन सिंड्रोम में बेहोशी के साथ एसिस्‍टेड वेंटिलेशन की जरूरत पड़ती है।
  • ब्‍लड ग्‍लूकोज लेवल को मॉनिटर और ठीक करना।
  • थेरेपटिक हाइपोथर्मिया से शिशु को मॉडरेट या गंभीर एंसेफलोपैथी में मदद मिल सकती है।
  • सरफक्‍टेंट थेरेपी : इंसान के फेफड़ों में नैचुरली रसायनिक तत्‍व जाने की वजह से एलविओली के अंदर सरफेस टेंशन कम हो जाती है। 35वे हफ्ते के बाद ज्‍यादातर शिशुओं के फेफड़ों में सरफक्‍टेंट विकसित होता है। कभी-कभी सरफक्‍टेंट से रेस्‍पिरेट्री डिस्‍ट्रेस किया जाता है।
  • एक्‍स्‍ट्राकोरपोरियल मेंब्रेन ऑक्‍सीजनेशन : इसमें मशीन की मदद से शिशु को रेस्पिरेट्री और कार्डियक सपोर्ट दिया जाता है।
  • नाइट्रिक एसिड निगलना या अन्‍य पल्‍मोनरी वैसोडिलेटर : पोस्‍ट-मैच्‍योर शिशु जो जन्‍म के समय मेकोनियम एस्पिरेशन सिंड्रोम से ग्रस्‍त हैं, उन्‍हें लगातार पल्‍मोनरी हाइपरटेंशन हो सकता है।
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प्रेगनेंट महिला के नौ महीने या 39वा हफ्ता पूरा होने पर लेबर शुरू होना सबसे बेहतर रहता है। 42वे हफ्ते के बाद कुछ तरीकों से प्रेग्‍नेंसी को और आगे बढ़ने से रोका जा सकता है :

  • मेंब्रेन स्‍वीपिंग या स्ट्रिपिंग : यदि महिला की गर्भाशय ग्रीवा इतनी खुल गई है कि उसमें उंगुली जा सकती है तो गायनेकोलॉजिस्‍ट बेबी के फीटल मेंब्रेन को गर्भाशय ग्रीवा की दीवार से डिजीटली हटा सकती है। इससे प्रोस्‍टाग्‍लैंडिन रिलीज होता है और गर्भाशय में कॉन्‍ट्रैक्‍शन उठती है जिससे लेबर के लिए रास्‍ता बन सकता है।
  • अनप्रोटेक्टिड कोइटस : सेक्‍स के दौरान प्रोस्‍टाग्‍लैंडिन रिलीज होता है जिससे यूट्राइन कॉन्‍ट्रैक्‍शन होती हैं। इस तरह सेक्‍स करने से भी लेबर शुरू हो सकता है।
  • एक्‍यूपंक्‍चर : प्रेग्‍नेंसी का समय पूरा होने के बाद कुछ महिलाओं  में एक्‍यूपंक्‍चर से लेबर शुरू हुआ है। हालांकि, इस बात के अधिक वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं।
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